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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व परिचय अलग से आगे दिया गया है। (2) नयकर्णिका- इस कृति के नाम से ही विदित होता है कि इसमें जैन दर्शन के नय सिद्धान्त का विवेचन हुआ है। दार्शनिक कवि विनयविजय ने तीर्थंकर महावीर की स्तुति करते हुए २३ श्लोकों में संस्कृत भाषा में इस लघुकृति की रचना की है। इसमें सात नयों का विस्तृत विवेचन है- १. नैगमनय २. संग्रहनय ३. व्यवहार नय ४. ऋजुसूत्र नय ५. शब्द नय ६. समभिरुढ नय ७. एवम्भूत नया वस्तु के सामान्य एवं विशेष धर्मों के स्वरूप तथा नैगमादि नयों की उत्तरोत्तर विशुद्धता का भी प्रतिपादन किया गया है। समस्त नयों के विरोधी होने पर भी वे भगवान् के आगम वचन की उसी प्रकार सेवा करते हैं जिस प्रकार परस्पर विरोध करने वाले राजा एकत्रित होकर युद्ध रचना में चक्रवर्ती के चरण कमलों की सेवा करते हैं। इसमें एक-एक नय के १०० भेद मानकर ७०० भेद कहे हैं।" शब्दनय में तत्त्वार्थसूत्र की भांति समभिरूढ़ तथा एवम्भूतनय का अन्तर्भाव करते हुए नयों के पाँच भेद एवं ५०० भेद भी कहे गए हैं। इस रचना पर संस्कृत में वृद्धिविजय जी के शिष्य पं. गम्भीरविजय जी ने टीका का लेखन किया है। इसका गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित है। (3) पंचसमवाय स्तवन- पंच समवाय का सिद्धान्त जैन दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त के रूप में प्रसिद्ध है। इसमें पाँच कारणों का समवाय कार्यसिद्धि में हेतु माना जाता है। वे पाँच कारण है- १. काल २. स्वभाव ३. नियति ४. पूर्वकृत कर्म ५. पुरुषार्थ। इन पाँचों के समन्वय से कार्य सम्पादित होते हैं। उपाध्याय विनयविजय ने इन्हीं पाँच कारणों के समवाय को आधार बनाकर 'पंच समवाय स्तवन' का गुजराती पद्यों में विक्रम संवत् १७२३ में कवन किया था। इसमें छह ढालें हैं तथा कुल ५८ कड़ियाँ हैं। विनयविजय जी ने कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पूर्वकृत कर्मवाद एवं पुरुषार्थवाद की एकान्तता को अनुपयुक्त बताते हुए इनके समन्वय को उपयुक्त माना है। वे कहते
ओ पांचे समुदाय मिथ्या बिण, कोई काज न सीझे।
अंगुलीयोगे करतणी परे, जे बुझे तो रीझे रे।।" (4) षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह संक्षेप- दार्शनिक खण्डन मण्डन के युग में जल्प का भी महत्त्व रहा है। न्यायसूत्र में जल्प का लक्षण इस प्रकार दिया है
यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः।" अर्थात् प्रमाण एवं तर्क से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का खण्डन करने के साथ जिसमें छल, जाति, एवं निग्रह स्थान के द्वारा भी स्वपक्ष की सिद्धि एवं परपक्ष का निरसन किया जाए उसे 'जल्प' कहते हैं। जैन दर्शन में जल्प के प्रयोग को उचित नहीं माना गया है। तथापि अन्य दर्शनों के