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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
| वर्गणा, अग्रहण योग्य वर्गणा, द्रव्य-सूक्ष्म बादर पुद्गल परावर्तन, | क्षेत्र सूक्ष्म बादर पुद्गलपरावर्तन, काल सूक्ष्म बादर पुद्गलपरावर्तन, भाव सूक्ष्म-बादर पुद्गल परावर्तन, अनुभाग बन्ध, कर्म द्रव्यों की भाग प्राप्ति, एक अध्यवसाय में कर्म दलिक, स्पर्धक,
अविभाग प्रतिच्छेद, शुभाशुभाध्यवसाय, अनागत काल का प्रमाण | आदि।
भावलोक छत्तीसवाँ | २५४ | २४ भाव का स्वरूप, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक,
पारिणामिक एवं सान्निपातिक भावों का निरूपण, औपशमिक के दो, क्षायोपशमिक के १८, क्षायिक के ६, औदयिक के २१, पारिणामिक के ३ भेदों का कथन, सान्निपातिक के द्विकसंयोगी आदि का कथन, अजीव के दो भाव, आठ कमों के आधार पर भावों का निरूपण, गुणस्थान के आधार पर भावों का निरूपण, गुणस्थानों को लक्ष्य कर क्षायिकादि के उत्तरभेदों का कथन ।
उपसंहार सैंतीसवाँ | ४१ - ३६ सर्गों में विवेचित विषय वस्तु का संक्षिप्त कथन। प्रशस्ति
तीर्थंकर महावीर से प्रमुख पाट परम्परा एवं गुरु परम्परा का उल्लेख।
इन ३७ सों की विषयवस्तु का अवलोकन करने से विदित होता है कि उपाध्याय विनयविजय ने इसमें जैन परम्परा की द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक विषयक मान्यताओं को व्यवस्थित क्रम में परोसा है। यदि कोई मात्र लोकप्रकाश को पढ़कर जैन धर्म की विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहता हो तो वह लोक के चतुर्विध स्वरूप के माध्यम से प्रमुख धारणाओं का ज्ञान कर सकता है।
जैन धर्म में विभिन्न द्वारों के माध्यम से विषयवस्तु की प्रस्तुति का प्राचीन उदाहरण हमें आगमों में प्राप्त होता है। अनुयोगद्वार एवं षट्खण्डागम इसके प्राचीन प्रमाण है। उपाध्याय विनयविजय ने भी ३७ द्वारों में इस विधि को अपनाया है। स्वर्गवास
विक्रम संवत् १७३८ में उपाध्याय विनयविजय जी का रांदेर चातुर्मास के दौरान