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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
4. स्तोत्र एवं स्तवन साहित्य
विनयविजयगणी ने विभिन्न स्तोत्रों, स्तवनों एवं स्तुतियों की रचना की है। एतद्विषयक . उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- १. जिनसहस्रनाम स्तोत्र २. अर्हन्नमस्कार स्तोत्र ३. आदिजिनविनति ४. उपधानस्तवन ५. गुणस्थान गर्भित वीर स्तवन ६. जिणचेइयथवण ७. जिनचौबीसी ८. पुण्य प्रकाश स्तवन ६. विहरमान जिनवीसी १०. वृषभतीर्थपति स्तवन ११. धर्मनाथ नी विनतिरूप स्तवना १२. नेमिनाथबारमासी (1) जिनसहस्रनाम स्तोत्र- गान्धार वर्षावास में विक्रमसंवत् १७३१ में भुंजगप्रयात छन्द में रचित १४३ पद्यों के इस स्तोत्र में 'नमस्ते' शब्द का प्रयोग १००१ बार हुआ है। इसी से इस स्तोत्र का नाम जिनसहन रखा गया है। प्रत्येक पंक्ति में जिनेश्वर के भिन्न-भिन्न स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। प्रशस्ति आदि के पद्यों को मिलाकर यह कृति १४६ पद्यों की है। इसका प्रकाशन श्री वीर समाज अहमदाबाद के द्वारा सन् १६२५ में किया गया था। इस स्तोत्र का एक पद्य उदाहरण हेतु प्रस्तुत है
नमोऽनुत्तरस्वर्गिभिः पूजिताय नमस्तन्मनः संशयच्बेदकाय । नमोऽनुत्तरज्ञानलक्ष्मीश्वराय,
नमस्ते, नमस्ते, नमस्ते, नमस्ते।।" इसके प्रत्येक पद्य में जिनेश्वर देव की कोई न कोई नई विशेषता प्रकट हुई है। (2) अर्हन्नमस्कार स्तोत्र- विक्रम संवत् १७३१ में विरचित यह कृति अप्रकाशित है तथा उदयपुर के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है। कृति के नाम से ही विदित होता है कि इसमें जिनेश्वरों को नमस्कार करते हुए उनके गुणों की स्तुति की गई है। (3) आदि जिनविनति- यह आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रति ५७ पद्यों में की गई भावभीनी विनति है। जिसमें रचनाकार ने भक्तिभाव से उन्हें मनाने का प्रयास किया है। यह भी भावना भायी है कि ऋषभदेव की सेवा का अवसर प्रत्येक भव में मिलता रहे। (4) उपधान स्तवन- जैन गृहस्थों के उपधान नामक अनुष्ठान को आधार बनाकर २४ कड़ियों में निबद्ध यह पद्यात्मक कृति गुजराती भाषा में है। उप अर्थात् समीप और धान अर्थात् धारण करना। गुरु के समीप उनके मुख से नवकार आदि सूत्रों का विधिपूर्वक ग्रहण करना उपधान है। उपधान के छह प्रकार माने गये हैं। जिनका विवेचन इस कृति में प्राप्त होता है। इसमें उपधान की महत्ता भलीभाँति प्रकट हुई है। तपागच्छ के आचार्य श्रीविजयप्रभसूरि जी का नामोल्लेख होने से यह