________________
लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
भावनगर से प्राप्त होती रही है । इन्दुदूत का मूल रूप सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'विज्ञप्ति लेख संग्रह' के भाग में भी उपलब्ध है।
30
इन्दुदूत काव्य काव्यात्मक दृष्टि से उत्तम है, किन्तु कवि ने इन्दु को जो दूत बनाया है । उसकी परिकल्पना औचित्य पूर्ण नहीं लगती क्योंकि इन्दु तो उसी समय जोधपुर में एवं सूरत में एक साथ दिखाई देता है। उसको चलकर संदेश पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है। मेघ को तो चलकर संदेश पहुँचाना होता है क्योंकि वह एक साथ एक समय पर दृष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु कवि ने चन्द्रमा को जो सम्पूर्ण मार्ग समझाया है, उसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। फिर कवि की कल्पनाओं को हम बांध नहीं सकते। कवि को वही उज्ज्वल संदेश वाहक नजर आया होगा। जो बिना किसी लाग-लपेट के संदेश को गन्तव्य तक पहुँचा सकता है । चन्द्रमा गति तो करता ही है, अतः वह सूरत के नजदीक पहुँचेगा तब सम्भव है कवि के संदेश को उनके गुरु तक पहुँचा दे।
(2) आनन्द लेख - यह रचना उपाध्याय विनयविजय ने भट्टारक श्री विजयानन्द सूरि को विज्ञप्ति रूप में तब लिखी थी जब वे देवसूरगच्छ से आनन्दसूरगच्छ में आए थे। यह रचना विक्रम् सम्वत् १६६४ में धनतेरस के दिन पूर्ण हुई थी । काव्य की यह एक विशेष विधा है जिसमें अपनी भावना विज्ञप्ति के रूप में दूसरे तक पहुँचाई जाती है। इसमें भी संस्कृत पद्य ही हैं, किन्तु दूतकाव्य से इनमें यह भेद है कि दूतकाव्य में किसी को दूत बनाकर संदेश भिजवाया जाता है जबकि विज्ञप्ति लेख में बिना दूत बनाए अपने सम्पूर्ण भाव एक स्थान पर अंकित कर दिए जाते हैं। फिर इसे यथास्थान भेज दिया जाता है। विज्ञप्तिलेख में कुम्भकलश, अष्टमंगल, १४ महास्वप्नादि को चित्रित कर स्वयं के स्थल आदि का निर्देश करते हुए सजे-धजे रूप में अभीष्ट व्यक्ति को भेजा जाता था। विनयविजयगणी ने द्वारपुर ( बारेजा, द्वारिका ) नगर में इसे लिखा था तथा स्तम्भतीर्थ में विराजित भट्टारक विजयानन्दसूरि की सेवा में प्रेषित किया था। विजयानन्द सूरी के लिए लिखे जाने के कारण ही इस विज्ञप्ति लेख का नाम आनन्दलेख है। इसमें कुल पाँच अधिकार एवं २५२ पद्य हैं। जो विभिन्न छन्दों में लिखे गए हैं।
यह रचना चित्रकाव्य कोटि की है। जिसमें विविध प्रकार के शब्दालंकारों एवं चित्रालंकारों का प्रयोग किया गया है। इसके प्रथम अधिकार का नाम चित्र चमत्कार रखा गया है। मंगलाचरण के अनन्तर सत्रह श्लोकों में अपने गुरु के नाम से गर्भित १८ अर से युक्त चक्र बनाया गया है। ये सारे श्लोक ‘ज’ अक्षर से प्रारम्भ होते हैं तथा इनमें प्रत्येक पद्य एक भिन्न अर्थ को भी प्रस्तुत करता है जैसे पूर्णकलश, छत्र, शर, धनुष आदि । चक्र के अतिरिक्त कमल, त्रिशूल आदि के चित्र भी बनते हैं। यह प्रथम अधिकार मूलतः ५१ श्लोकों का है। जिनमें ४२ श्लोकों में आदि तीर्थंकर के चरण, नख,