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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यशस्वी लोग प्रायः अपनी प्रार्थना के भंग होने से भीत रहते हैं। अतः मेरी प्रार्थना को अप्रमत्त भाव से स्वीकार करना है । चन्द्र वर्णन के साथ कवि ने पारिजात वृक्ष, रात्रि, अमृत आदि का भी वर्णन किया गया है। अपनी प्रार्थना भंग न हो इसका विश्वास दिलाते हुए कवि चन्द्रमा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं
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तस्माद्वन्धो! जलधितनय! प्रार्थनां मे समर्थ, व्यर्थीकर्तुं न खलु कथमप्यर्हसि प्रौढवंश्य ! ।। येनोत्कृष्टं जगति विदितं याचमानस्य जन्तोर्याच्ञाभंगे भवति लघुता नैव सा किन्त्वमुष्य । । "
कवि विनयविजय ने चन्द्रमा को जोधपुर से सूरत जाने का मार्ग समझाया है। मार्ग में आने वाले जालोर, सिरोही, आबू, अचलगढ़, सिद्धपुर, राजनगर, बड़ौदा, भरूच और नर्मदा आदि नगरों का वर्णन भी इस व्याज से सुन्दर हुआ है । कवि ने आबू के वर्णन के साथ विमलशाह एवं वस्तुपाल का भी कथन किया है। आबू पर्वत में विद्यमान निकुंज का प्राकृतिक वर्णन करते हुए कवि कहता है
कूजद्भिर्येः श्रुतिसुखकराः कोकिलैर्मल्लिकाना, मामोदैश्च प्रसृमरतरैः प्राणिनो मोदयन्ति । उद्गच्छद्भिर्न वनवतृणैर्वर्ण्य वै डुर्थ्य बद्ध, क्षोणीपीठा इव विदधते शं निकुंजा द्रुमाणाम् ।।
सूरत की सीमा में प्रवेश करते हुए कवि ने तापी नदी का वर्णन किया है। फिर सूरत नगर का निरूपण करते हुए वहाँ स्थित गोपीपुरा उपाश्रय एवं उसके व्याख्यानमंडप का संकेत किया है। फिर वहाँ विराजमान विजयप्रभसूरि को अपना संदेश पहुँचाने हेतु निवेदन किया है। आचार्य को वन्दन करने की प्रेरणा करते हुए इसके फल से भी चन्द्रमा को परिचित कराया है
वन्देथाः श्रीतपगणपतिं सार्वमैदंयुगीनं, पीनं पुण्यप्रभंवमुदधेर्नन्दन ! एवं लभेथाः । प्राच्यैः पुण्यैः फलितमतुलैस्तावकीनैः सुलब्धं, जन्मैतत्ते न भसि च गतिर्भाविनी ते कृतार्था । । *
इस काव्य में शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों का प्रयोग प्राप्त होता है । कवि ने शान्त रस के साथ शृंगार रस को भी स्थान दिया है। प्राकृतिक सौन्दर्य को प्रस्तुत करने में अपनी निपुणता की अभिव्यक्ति दी है।
इस इन्दुदूत खण्डकाव्य पर मुनि श्री धुरन्धरविजय जी ने 'प्रकाश' नामक संस्कृत टीका लिखी है। जिसका प्रकाशन श्री जैन साहित्य वर्धक सभा श्रीपुर से सन् १६४६ में हुआ है तथा यह