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कर्मों का आसव : स्वरूप और भेद ५५७
पश्चात् श्लिष्ट हो जाते हैं। ये साम्परायिक आस्रव इसलिए हैं कि ये भी कषाययुक्त हैं
और इसका कर्ता भी कषायवृत्ति से युक्त है। कलुषित मानसिक वृत्ति के साथ-साथ सहज शारीरिक और वाचिक क्रियाएँ भी चलती रहती हैं। हिंसा : अव्रत का प्रथम अंग : स्वरूप और विश्लेषण
अव्रत का पहला अंग हिंसा है। हिंसा का स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया हैप्रमत्तयोग (प्रमादयुक्त मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) से होने वाला प्राणवध हिंसा है।'
प्राण के १0 प्रकार जैनागमों में बताये गए हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, (२) चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण, (३) घाणेन्द्रिय बलप्राण, (४) रसनेन्द्रिय बलप्राण, (५) स्पर्शेन्द्रिय बलप्राण, (६) मनोबल प्राण, (७) वचनबल प्राण, (८) कायबल प्राण, (९) श्वासोच्छ्वासबल प्राण और (१०) आयुष्यबल प्राण।
किसी जीव को जान से मार देना, इतना ही हिंसा नहीं है, किन्तु जीव के १0 प्राणों में से किसी भी प्राण का हनन करना, चोट पहुँचाना, सताना, मारना-पीटना, हृदय को आघात पहुँचाना, डराना-धमकाना, दबाकर गुलाम बनाकर परवश कर देना, अंगभंग कर देना, जला देना, दम घोंट देना, पीड़ा देना, अपमानित करना, अन्यायअत्याचार करना आदि भी हिंसा की कोटि में हैं। फिर मन-वचन-काया से हिंसा करना, कराना और हिंसा का अनुमोदन करना, भी हिंसा की कोटि में है।
प्रमत्तयोग शब्द, इसलिए जोड़ा गया है कि यदि किसी भी प्रकार की हिंसा रागद्वेष युक्त या कषाययुक्त मनोभावना तथा वचन या काया से की गई है तो वह दोषयुक्त है, यही प्रमत्तयोग का फलितार्थ है। किन्तु यदि कोई महाव्रती साधक या स्थूल अहिंसाव्रती श्रावक बहुत ही सावधानीपूर्वक विवेक और यलाचार के साथ प्रवृत्ति कर रहा है, उसकी मनोभावना किसी जीव को मारने-सताने या प्राणहरण करने की नहीं है, फिर भी किसी कारणवश कोई जीव मर जाता है, या किसी जीव को चोट पहुँच जाती है; तो ऐसी स्थिति में उसे द्रव्यहिंसा (व्यावहारिक हिंसा) भले ही कह दी जाए, पर वह हिंसा प्रमत्तयोग युक्त न होने भाव हिंसा नहीं है। वह हिंसा पापकर्मासव या पापकर्मबन्धक नहीं है। हौं, कर्ता के पूर्णतः कषायमुक्त न होने से, वह हिंसा पूर्णतः निर्दोष भी नहीं है, उससे शुभानव और बाद में शुभकर्मबन्ध होता है। - ऐसे स्थूल अहिंसाव्रत या सूक्ष्म अहिंसाव्रत से बद्ध व्यक्ति द्वारा हिंसा की नहीं गई है; किन्तु हिंसा हो गई है, वह भी भावहिंसा नहीं, द्रव्यहिंसा हुई है। हिंसा करने और हिंसा हो जाने में बहुत ही अन्तर है। १. "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसाः ।"
- तत्त्वार्थसूत्र ७/८ २. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। __प्राणादशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषांवियोजीकरणं तु हिंसा।
-जैनाचार्य
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