Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया) तस्वचर्चा
प्रत्यासत्तिरूप कारणता पायी जाती है, इसलिये वहाँ अन्ताप्ति आगममें स्वीकार की गधी है और निमित्तको कार्यके साथ कालप्रत्यासत्तिका कारणता पायी जाती है इसलिये वहाँ दहियाति आगममें स्वीकार की गयी है। अन्ताति उपादानको कार्यके साथ तन्मयताकी सूचना देती है, लेकिन बहिििप्त निमिसकी कार्यके साथ यद्यपि तन्मयताका निषेध करती है तो भी मन्त्रय-तिरेकके आवारपर उसके रयोग कमायोत्पसिना हि मा पलायो यही एक कारण है कि आचार्योको निमित्तको कार्थके साथ बहियादित स्वीकार करनी पड़ी है। आप ग्रहों भी सोचिये कि उपादानको महत्ता कार्यके प्रति तबतक रहा करती है जबलक कार्य विद्यमान रहता है, लेकिन निमित्तको महत्ता तभीतक रहा करतो है जबतक कार्य उत्पन्न नहीं हो जाता। कार्यके उत्पन्न हो जानेपर फिर निमित्त की कुछ मद्त्ता नहीं रह जाती है। यही कारण है कि लोक में उपादागका महत्त्व इस दृष्टिसे झांका जाता है कि वार्य महातक स्थायी रह सकता हैं। लेकिन निमित्तका महत्त्व तबतक लोक आंका जाता है जबतक कार्य सन्दरताके साय उतान्न नहीं हो जाता। इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'अन्तयाप्ति के नाधारपर काका उपादान ही केवल वास्तविक कारण है, बहियाप्तिके आधारपर कार्यका निमित्त वास्तविक कारण नहीं है-ऐसी मान्यता अमपूर्ण हो है।'
आगे आफ्ने लिखा है कि 'द्रव्य अन्वयी होनेके कारण जैसा मित्रा है उसी प्रकार व्यतिरेकी स्वभाववाला होनेरो प्रत्येक समयमें वह उत्पादनस्यस्वभाववाला भी है, अलएवं प्रत्येक समयमें वह कार्यका उपादान भी है और कार्य भी है। पिछली पर्यायको अपेक्षा जहाँ यह कार्य है अगली पर्यावके लिये यहाँ वह उपादान भी है।
सो ऐसा मानने हमारा कोई विरोध नहीं, हम भी ऐसा ही मानते है और वस्तु के स्वप्रत्यय परिणमनोंमें तो यही प्रक्रिया चालू रहती है, परन्तु बस्तुके जिन परिणमन में जब विलक्षणनाकी उद्भूति हो जाती है तब उन परिणमनों में उस विलक्षणताके आधार पर परिणमनोका स्वतंत्र कम ही चालू हो जाता है। ऐसी धन् विलक्षणता उनमें स्वत: नहीं होती है, वह तो तदनकूल निमित्तोंके सहारे पर ही हुआ करती है । जैसे खानमें पड़ी हुई मिट्टी का प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है और फिर बही मिट्टी कुम्हारके घर पर कुम्हार के तदनुकूल प्रयत्न करने पर आ जाती है तो यह जो क्षेत्र परिवर्तन इस मिट्टीका हुआ वह क्या खान में पञ्ची हुई उस मिट्टीको क्षणिक गर्यायोंके क्रमसे हुआ ? तथा उस मिट्टोका मागे चलकर लाहारके प्रयत्नसे ही जो पिण्ड बन गया और इसके भी आगे कुम्हारके ही प्रयत्नसे उस मिट्टीको स्थाम, कोश और कुलके क्रमसे घटपर्याय बनी अथवा कुम्हारने अपनी इच्छासे उसकी घटपर्पाय न बनाकर सकोरा आदि दूसरी नाना प्रकारको पर्याय बना हों और या किसी ने आकर अपने दण्ड प्रहारसे वियक्षित पर्यायको नष्टकर दूसरी पर्यायमें उस मिट्टीको पहुंचा दिया तो ये सब विलक्षण विलक्षण पर्याये क्या मिट्टीको क्षणिक क्रमिक पर्यायोंके आधार पर ही बन गयों अथवा उम पर्यायके अनुकूल निमित्तोंको सहायतासे हो ये पर्यायें उत्पन्न हुई । इन सब बातों पर पूर्वमें विस्तारसे प्रकाश डालकर हम प्रत्यक्ष, तर्क और आगमप्रमाणोंके आधार पर विस्तारपूर्वक यह भी बतला आये हैं कि मिट्टी में विद्यमान घटरूप परिणमनकी योग्यताके आधार पर होते हुए भी यह सब करामात निमित्तोंकी है, इसलिये आपका यह लिखना ही कि-'संतानक्रमको अपेक्षा प्रत्येक समयमें उसे ( वस्तुको) उभ्यरूप ( कार्य और कारणरूप ) होनेके कारण निमित्त भी प्रत्येक समय में उसी क्रमसे मिलते रहते है केवल सम्यक मान्यता नहीं है। इसे सम्यक मान्यता तो तन्त्र कहा जा सकता है जब कि जो निमित्त मिलते हैं उन्हें, जैसा कि आपने स्वयं स्वीकार कर लिया है, चाहे वे पुरुषके योग और