Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शुगणार
शंका ८ और उसका समाधान
५३३ जो श्लोक आपने उद्धृत किया है उसमें तो सर्वशके वचनोंको 'सरिमहिते, 'शाम्त्य, विमः सम
सागितक PATHदा पाशगंविदा भपूर्व वा विशेषणों द्वारा स्तति की अर्थात् 'सर्व आत्माओंका हित करनेवाली, शान्तिरूप, पशुओं के कानोंके द्वारा सुने जाते हैं, जिससे विपद विनष्ट हो जाती है ऐसे सर्वज्ञ भगवान् के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करो। आगे आगने लिखा है कि 'सब प्रमाणों में स्वत: प्रमाणता स्वतः स्वीकार करनी चाहिये ।' किन्तु जिस श्लोकके आधार पर यह लिखा गया है वह लोक ज्ञानसे संबंधित है, क्योंकि यह लोक ज्ञान-ज्ञेयके प्रकरणमें आया है । इस श्लोकका दिग्यध्वनिसे कोई संबंध नहीं है।
आपने लिखा है 'यदि दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता स्वाश्रित नहीं मानी जाती है तो वह अन्यसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। यदि आप हमारे पूर्व उत्तर दिये गये 'वचनोंकी प्रमाणता वक्ताको प्रमाणतारी होती है, इस बार्ष वचनपर ध्यान देते तो आपको यह कठिनाई न पड़ती।
आगे आप लिखते है कि 'असद त भ्यवहारनयकी अपेक्षा विचार करने पर वह तीर्थकर आदि प्रकृतियोंके उदयके निमित्तसे होनेसे दिव्यध्वनिको प्रामाणिकता पराश्रित भी है।' तीर्थकर आदि प्रकृतियों के उदयसे तो समवशरण गंघटिकी रचना होती है। किसी भी प्रकृतिके जदयसे तो औयिक भाव होगा या पर द्रव्यका रांयोग होगा, किन्तु प्रामाणिकता तो नहीं आ सकती । यदि कर्मोदयसे प्रामाणिकता होती हो तो सिद्धोंमें जहां किसी भी फर्मका उदय नहीं प्रामाणिकताके अभावका प्रसंग आजायेगा । सो आपका यह लिखना 'तीर्थकर आदि प्रकृतिने जदयसे दिव्यध्वनिमें प्रमाणता पराश्रिल है' ठीक नहीं है।
आपने लिखा कि 'योगकी अपेक्षा दिव्यध्वनिको प्रामाणिकतामें सर्वजदेवकी भी निमित्तता है' सो यह सयुक्तिक प्रतिपादन नहीं है, क्योंकि पचनकी प्रामाणिकतामें ज्ञानको प्रकर्पता ही कारण मानी गई है। अन्यथा अज्ञानी मनुष्यके वचनों में भी प्रामाणिकताका प्रसंग आ जायगा, क्योंकि वाग्योग तो उसके भी विद्यमान है। फलत: जब आप योमके माध्यमसे सर्वज्ञदेवको निमित्त माननेके लिये तैयार हो गये है तब
को ही दिव्यध्वनिको प्रामाणिकताका कारण स्वीकार करना आगम संगत है। सवधिसिद्धिमें पूज्यपाद स्वामीने श्रुतको प्रमाणताको मतलाते हुए वस्ताको हो कारण माना है
यो वकार :-सर्वज्ञस्तीर्थकरः इतरो वा श्रुतकेनली आरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञ न परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञान विभूतिविशेषेण अर्थत आगम उदिष्टः । तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात् प्रक्षोणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यबुंधतिशयर्खियुक्तगणधरैः धुतकेवलिभिरनुस्मृप्तप्रन्धरचनामंगपूर्वलक्षणम् । तत्प्रमाणं तत्प्रामाण्यात् । आरातीयः पुनराचार्यः कालदोषापंक्षिायुमतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकायुपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिप्ति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।
-सर्वार्थसिद्धि पं० फूलचन्द्रजी द्वारा संपादित संस्करण पृष्ट १२३ अर्थ-वक्ता तीन प्रकारके हैं-सर्वज्ञ तीर्थकर वा सामान्य केवली तथा श्रुत केबली और आरातीय । इनमेंसे परम ऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अधिन्त्य केवलज्ञानरूपो विभूतिसे युक्त है। इस कारण उन्होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया। ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त है, इसलिये प्रमाण है। इनके साचात् शिष्य और बुद्धि के अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्मरणकर अंग और पूर्व प्रन्योंको रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणतासे ये भी प्रमाण है। तथा आरातीय आवाोंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है एसे शिष्योंका उपकार करके लिये दशवकालिक आदि ग्रन्थ रचे ।