Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 467
________________ शंका १७ और उसका समाधान हत्यादि वचन निश्चय और व्यवहार इन दोनों पक्षोंकी सिद्धिके अभिप्रायसे लिखा गया है। यतः दोनों पक्षोंकी सिद्धि युगात नहीं हो सकतो, अतः उनकी सिद्धि क्रमसे की गई है। पर इसका आवाय यह नहीं कि प्रत्येक कार्यमें दोनों प्रकारके हेतु ओंका बुगपत् समागम नहीं होता। इसलिये प्रत्येक समय में प्रतिनियत हेतुओंका समागम होकर प्रतिनियत कार्य हो उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ उक्त कथनका आशम लेना चाहिए, अन्यथा एकान्तका परिहार करना अशत्र्य होगसे समस्त कार्य-कारणपरम्परा ही गड़बड़ा जाती है। और इस प्रकार वस्तुमै प्रत्येक समय में उत्साद-व्ययके न बन सकनेके कारण वस्तुका ही अभाव प्राप्त होता है जो युवा नहीं है, अतः प्रत्येक समय में प्रतिनियत वाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें प्रसिनियत कार्य को उत्पत्तिको स्वीकार कर लेना यही आगमसम्मत माग है ऐसा वहीं समझना चाहिए । अपर पक्षने तत्वार्थवातिक अ०५ सू०१७ का 'कायस्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तसिद्धे इत्यादि बचन उक्षत किया है। सो उसका भी पूर्वोक्त आगय ही है। प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य उपकरण प्रतिनियत बाह्य सामग्री है और आभ्यन्तर उपकरण समर्थ उपादानरूप आभ्यन्तर सामग्री है। इनमें से कार्यका एक आत्मभूत विशेषण है और दूसरा अनात्मभूत विशेषण है। इसीको आचार्य समन्तभद्रने बाघ और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रता कहा है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामै हो प्रत्येक समयमें प्रतिनियत कार्य होता है। प्रवचनसार गाथा १०२ को मुरिकृत टोकाका भी यही आशय है । मीमुख समाज में जो नहलपाराधित' इत्यादि वधन आया है, इसमें मुख्यतया उपादानोपादयभावी दृष्टिसे विचार किया गया है। तथा 'कुलालस्येव कलशम्पति' इस वचन द्वारा उसकी पुष्टि की गई है। इस द्वारा बतलाया गया है कि जैसे कुलाल (कुम्हार ) कलशके प्रति निमित्त ( ध्यबहार हेतु ) है उसी प्रकार अनन्तर पूर्व क्षण कारण है और अनन्तर उत्तर भण कार्य है, क्योंकि कारण के होनेपर कायके होनेका नियम है। इस प्रकार इस वचन द्वारा भी पूर्वोक्त अभिप्रायकी हो पुष्टि की गई है। स्पष्ट है कि ये सब वचन हमारे अभिप्रायकोही पष्टि करते हैं, क्योंकि प्रतिनियत कार्यको प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके प्रतिनियत कालम हानेका नियम है। इस प्रकार त• इलो० वा०, पृ० १५१ आदिके वचनों का क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण किया। हमने लिखा था कि "निमित्तको व्यवहारसे कारण स्वीकार किया गया है। इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'आप निमित्त में कारणताका उपचार करना पाहते हैं । लेकिन यहाँ विचारना यह है कि निमित्त शब्दका अर्थ ही जब कारण होता है तो निमित्त विद्यमान कारगतासे अनिरिक्त और कोनसी कारणताका उपचार आप निमित्तमें करना चाहते हैं। तया उसमें निमित्तम ) कारणसाने विद्यमान रहते हए उस उपचरित कारगतामा प्रयोजन हो क्या रह जाता है।' समाधान यह है कि यहाँ पर बाह्य सामग्रीफे अर्थ में निमित्त शब्दका प्रयोग करके उसे अन्यके कार्य व्यवहार हेतु बतलाया गया है। अतः अपर पक्षको हमारा अभिप्राय समझकर ही जमका आशय ग्रहण करना चाहिए । 'बंधेच मोक्त्व हेऊ' इत्यादि गाथाके अर्थपर अपर पक्षने जो टिप्पणी की है उसका स्पष्टीकरण हम इभी उत्तरमें पहले हो कर आये है। अत: व्यवहार हेतु और निश्चय हेतुके विषयमें जो आशय आगमका है, जिसका कि हमने विविध प्रमाणों के आधारसे स्पष्टीकरण किया है वही ठीक है। अपर पलने 'प्रत्येक वस्तु में समानरूपसे एक साथ पाये जानेवाले उपादानता और निमित्तता नामके दोनों ही धर्म कार्यसापेक्ष होते हए भो वास्तविक ही हैं।' इत्यादि लिखकर व्यवहार हेतुताको भो वास्तविक

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