Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 466
________________ जयपुर (सानिया ) तत्त्वचर्चा अपर पक्ष उषत कथनको अपने अभिमतके समर्थनमें मानता है। किन्तु माचार्य विद्यानन्दि उस कथनको निश्चय कथन नहीं बतला रहे है, मात्र व्यवहारनय कथन बतला रहे हैं, इसपर अपर पक्ष अपना ध्यान दे यह हमारा उस पक्षसे सविनय निवेदन है। अब देखना यह है कि आचार्य विद्यानन्दिने यदि द्विष्ट कार्य-कारणभावको व्यवहारसमसे परमार्थभूत कहा तो क्यों कहा ? बात यह है कि जिस प्रकार बौद्ध-दर्शन स्कन्धसन्तति आदिको गंवृतिमत् (कल्पनारोपित) मानता है उस प्रकार जनदर्शन तसे सर्वथा कल्पनारोपित नहीं मानता, क्योंकि दो आदि परमाणुओंम से प्रत्येक परमाणुमें अपने से भिन्न दूसरे परमाणुको निमित्त कर अपनी योग्यतावश ऐसः परिणाम होता है जिसके कारण नाना परमाणुओंके उक्त परिणामको देश-भावप्रत्याससिवश स्कारध आदि कहते है। ऐसा परिणाम सुसंस्कृत अर्थात् परमार्थसत् है, असंस्कृत अर्थात् कल्पनारोपित नहीं है । यहाँ प्रत्येक परमाणुके युगपत् देश-भावप्रत्यासत्तिरूप ऐसे परिणामको देखकर हो प्रहारनपसे द्विष्ठ कार्यकारणभावको परमार्थसत् बहा गया है। आशय यह है कि प्रत्येक परमाणुका उक्त प्रकारका परिणाम यथार्थ है । साथ ही उन सब परमाणुग्रं में देवाभावप्रत्यासत्ति है । उन में स्कन्ध व्यवहार करनेका यही कारण है । स्पष्ट है कि बौद्ध-दर्शन स्कन्धसन्ततिको जिस प्रकार संयत्तिमत-कल्पनारोपित मानता हूँ उस प्रकार जैनदर्शन नहीं मानता । इसी कारण आप्तमीमांसा कारिका ५४ को अष्टशती टोकामें उसे सुसंकृत अर्थात् परमार्थसत् बतलाया है। आचार्य विद्यानन्दिने भो इसी आधारपर त. श्लो. घार, पृ० १५१ में द्विछ कार्य-कारणभावको परमार्थ सत् कहा है। आचार्य विद्यानन्दिने वहीं पर उक्त उल्लेखके बाद संग्रह और मजसूत्रनयसे उसे जो कल्पनामाष घोषित किया है उसका यही तात्पर्य है कि स्कन्ध व्यवहारको प्राप्त हुए उन परमाणुओंको न तो एक सत्ता है, क्यों कि राव परमाणुओंकी स्वरूपसत्ता पृथक-पृथक है और न एक पर्याय हो है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु पृयका-पृथक् अपनी-अपनो पर्यायरूपसे परिणम रहा है। इस ष्टिसे देखनेपर द्विष्ठ कार्यकारणभाष कल्पनामात्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उनके वे शब्द इस प्रकार हैं संग्रह सूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचिस्कश्चित्सम्बन्धः अन्यत्र कल्पनामात्रात् इति सर्वमविरुद्धम् । संग्रहनय और जुसूत्रका आश्रय करने पर तो कल्पनामात्रको छोड़कर किसीका कोई सम्बन्ध नहीं है इस प्रकार सर्व कथन अविरुद्ध है। इस प्रकार समग्न कथनपर दरिपात करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां पर द्विष्ठ कार्य-कारणभावको जो परमार्थसत् कहा है वह विकल्परूप व्यवहारमयको ध्यानमें रखकर ही कहा है। व्यवहार नय मात्र विकल्परूप होनेसे उपचरित है इसके लिए समयसार गाथा १०७ की आत्मख्याति टोकापर दृष्टिपात कोजिए । संसारी जीव के ऐसा विकल्प साधार होता है, इसलिए तो वह कल्पनारोपित नहीं है और उस विकल्पको विषयभूत वस्तु वैसी नहीं है, इसलिए वह उपचरित है यह युक्त कथनका तात्पर्य हूँ। अपर पक्षने तत्वार्थवार्तिक अं०५ सू० २ को उपस्थित कर प्रत्येक कार्य-स्त्रपर प्रत्यय होता है इसकी सिद्धि की है । समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य स्व-पर प्रत्यय होता है इसका निषेध नहीं। विचार तो यह करना है कि इन दोनों में किसकी कारणता यथार्थ है और किसकी कारणता उपचरित है। परमागम में इसका विचार करते हुए अपना कार्य करने में समर्थ स्त्रको यथार्थ कारण बतलाया गया है और परको कारणताको उपचरित बतलाया गया है । उक्त उल्लेखमें 'नान्यतरापाये

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