Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
८१४
जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा
४. बंधे च मोक्न हेऊ' गाथाका अर्थ अपर पक्षने नयचक्रकी 'बंधे च मोक्ख हेक' इस वचनको उद्धत कर हमारे द्वारा किये गये उसके अर्थ को गलत बतलाया है। अपर पक्षने जबकि बन्ध और मोसमें जीवको यथार्थ हेतु तथा कर्म-मोकमकी व्यवहार हेतु स्वीकार कर लिया है तो इससे यह तो सुतरां सिद्ध हो जाता है कि कर्म और नोकर्मको जो बन्ध और मोक्षा हेतु कहा है वह उपचारसे हो कहा है, क्योकि 'व्यवहार हेतु' और 'उपवार हेतु' इन दोनों का आशय एक हो है। अतएव उक्त गाथाके आधारसे अपर पन्भने जो यह तात्पर्य फलित किया है कि 'इस प्रकार जहाँ आपने अपने अर्थम निमित्त में उपचारसे कारणता बतलाई है वहाँ हमने अपने अर्थ में कर्मनोकर्ममें वास्तविक निमित्तरूपसे कारणता बतलाई है।' वह बागमविरुद्ध है, क्योंकि अन्य वस्तु दूसरेके कार्यमें व्यवहारसे हेतु होता है, इसका हो यह गार्थ है कि वह उपचरित हेतृ होता है। गाथा में 'चहारदो' यह पद पथकसे आया है। वह भी इस तथ्यकी घोषणा करता है कि बन्ध-मोक्ष में कम-नोकर्मको हेल उपचारसे ही स्वीकार किया गया है, यथार्थमें नहीं ।
हमने अपने अर्थ में कोष्टकमें जो 'निमित्त' पद दिया है वह नहीं देना था यह हमें इष्ट है, क्योंकि अन्य पदार्थ अन्य के कार्यका स्वभावसे हेतु नहीं होता। किन्तु इस परसे अपर पक्षक अभिमतको सिद्धि नहीं होती। गाथा अपने में स्पष्ट है। उसके पूर्वार्धने व्यवहार हेतु-उपचरित हेतुका और उत्तरार्धमें निश्चय हेतु-यथार्थ हेतुका निर्देश करके बतलाया गया है कि अन्य पदार्थ बन्ध-मोक्षमें व्यवहार हेतु है और जीव निश्चय हेतु है।
अपर पक्षका पाहना है कि गाया. उस रा जोय ५८ है, इसलिए पूर्वाधम 'अण्णो' पदसे जीवसे भिन्न 'अन्य पदार्थ लिये गये हैं सो यह कहना जहाँ ठोक है वहाँ कर्म-नोकर्मको व्यवहारसे निमित्त बतलाकर भी वे वास्तविक कारण है यह अर्थ करना संगत नहीं है, क्योंकि उक्त गाघामें 'हेऊ अपणो वबहारदो' ये तीन पद स्वतन्त्ररूपसे पायें हैं, जिनका अर्थ होता है कि 'व्यवहारनपसे अन्य पदार्थ हेतु अर्थात् निमित्त है।' इससे सिद्ध है कि उक्त गाथा द्वारा बन्ध और मोक्षमें अन्य वस्तुको उपचारसे हेतु स्वीकार किया गया है। अपर पक्ष 'ववहारदी हेऊ का अर्थ 'निमित्त कारण' मात्र इसना करके उसे वास्तविक सिद्ध करना चाहता है यही उसकी भूल है। अपर पक्षको यह स्मरण रखना चाहिए कि निमित्त, कारण, हेतु और साधन इत्यादि शब्द एकार्थवाची है। यही कारण है कि गाथामें उपचार कारण और यथार्थ कारण इन दोनोंके लिए मात्र हेतु' शब्दका प्रयोग किया गया है। गाया बतलाया है कि बन्ध और मोक्षमें अन्य पदार्थ भी हेतु हैं और जीव भी हेतु है। परन्तु वे किस रूपमै हेतु है इसका ज्ञान कराते हए 'चवहारदी' और 'णिच्छयदो' पद देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि अन्य पदार्थ बन्ध-मोक्षम व्यवहारसे ( उपचारसे ) हेतु है और जीय पदार्थ निश्चयसे ( परमार्थसे ) हेतु है । अतएव अपर पक्षने प्रकृतमें उक्त गाथाके आधारसे जितना व्याख्यान किया है वह ठीक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
अपर पक्षका कहना है कि 'क्योंकि हम अपनी प्रतिशंकामें बतला चुके हैं कि एक बस्तुका अपना वस्तुत्व उपादान नहीं है और दूसरी वस्तुका अपना वस्तुत्व निमित्त नहीं है, किन्सु अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखती हुई विवक्षित वस्तु विक्षित कार्यके प्रति आत्रय होनेसे उपादान कारण है और अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखती हुई अन्य विवक्षित वस्तु सहायक होनेस निमित्त कारण है।' आदि।
समाधान यह है कि प्रत्येक बस्तुकी उपादानकारणता उसका स्वरूप है। तभी तो प्रत्येक बस्तुमें