Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 462
________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा है और चरण करता है, इसलिए चारित्र है इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर विषमभेदसे तीन प्रकारकै भेदको प्राप्त होता है। घे आमम प्रमाण है। इन पर सभ्य प्रकारसे दृष्टिगात करनेपर विदित होता है कि जो एक द्रध्यके द्वारा किये गये अनन्त पर्यायपने एक इं, किंचित् मिलित आस्वादवाला है, अभेदरूप है और एक स्वभाष है वह निश्चय है, क्योंकि परमार्थ से बस्तुका स्वरूप ही ऐसा है। इस प्रकार इस कथन द्वारा वस्तुस्वरूपका ही किया गया है. अतएव उक्त प्रकारस वस्तस्वरूपको ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है यह सिद्ध होता है। स्पष्ट है कि त्रिकालाबाधित अभेदरूप एक अखण्ड वस्तुको निश्चय संज्ञा है और उसे ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है। यह तो निश्चयस्वरूप वस्तुका और उसे ग्रहण करनेवाले निश्चयनयका स्वरूपनिर्देश है। अब व्यवहारनय और उसके विषयपर दृष्टिपात कोजिए । आचार्य कहते है कि 'यद्यपि बम और धर्मों में स्वभावसे अभेद है, सो भी नामसे भेद उपजाकर व्यवहारमाश्से हो ज्ञानोके दर्शन है, ज्ञान है और चारित्र है।' इससे विदित होता है कि धर्म-धर्मी में स्वभावसे अभेद होनेपर भी भेद हापजाकर कथन करना व्यवहार है और इसे विषय करनेवाला व्यवहारनय है। यतः धर्म और धर्मी एक वस्तुमें सद्भूत हैं, इसलिए ऐसे नयको सद्भूत व्यवहारनय कहते है। यहाँ ऐसा जानना चाहिए कि जिनागममें जो निश्चय व्यवहाररूप वर्णन है उसमें यथार्थका नाम निश्चय है और उपचारका नाम व्यवहार है। यह वस्तुस्थिति है। इसे दृष्टि ओझल करके अपर पक्ष वस्तुके एक धर्मको निश्चय कहता है और दूसरे धर्मको न्यबहार कहता है । यह बड़ी जटिल कल्पना है। उस पक्षने इस कल्पनाको मूर्तरूप किस आधारसे दिया यह हम अभी तक नहीं समझ सके । जब कि निश्चय शुद्ध अखण्ड वस्तु है और व्यवहार अखण्ड वस्तुमै भेद उपजाकर नसका कथन करनामात्र है। अपर पर समझता है कि व्यवहारनयका विषय वस्तुका धर्मविशेष है तथा इसी प्रकार निश्चयनयका बिषय भी वस्तूका धर्मविशेष है । किन्तु ऐसी बात नहीं है जैसा कि समयसार गाथा ७ को उक्त टोकासे स्पष्ट है। अपर पक्षको आगम पर दृष्टि रख कर उनके स्वरूपका निर्देश करना चाहिए। आगमफे अभिप्रायको स्पष्ट करनेका यह विधिमार्ग है। यद्यपि आगममें व्यवहारको प्रवृत्ति-निवृत्ति लमणबाला निर्दिष्ट किया गया हैम्यवहारं प्रवृत्ति-मिवृत्तिलक्षणम् । –अनगारधर्मामृत अ० १ श्लोक ९९ सो प्रकृतम उसका आशय इतना हो है कि जो प्रतादिरूप जीवकी प्रवृत्ति होती है उसे मोक्षमार्ग कहना यह व्यवहार है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना । आगममें जो व्यवहारको सदभूत व्यवहार और असदभूत व्यवहार इत्यादि भेद किये गये हैं वे मात्र किस आलाबनसे यह व्यवहार प्रवृत्त हुआ है यह दिखलानके लिए किये गये हैं। अभेद और अनपचारतरूप जो वस्तु है उसे इन में से कोई भी व्यवहारनय विषय नहीं करता, क्योंकि सद्भूत ब्यवहारनयका विषय संज्ञा, प्रयोजन और लक्षण आदिको ध्यानमें रखकर अखण्ड त्रिकालचाधित वस्तु में

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