Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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अयपुर (खानिया ) तस्वचर्या मिल जाता है। 'अञ्च वै प्राणाः' इत्यादि उदाहरणोंमें इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। उपचार सर्वथा कल्पित और निराधार नहीं है। किन्तु वह साधार है । उपचारको परमार्थभूत मानना ही असत्य है, अन्यथा यह व्यवहारसे सत्य है, क्योंकि व्यवहारीजनों की उसके आधारसे लोकव्यवहार की प्रसिद्धि होती है। हम अन्यके कार्य में अन्यकी सहायतारूप व्यवहारका लोप नहीं करना चाहते। उसे परमार्थरूप माननेका निषेध अवश्य करते हैं। अपर मक्ष अवश्य ही उसे परमारून सिद्ध करने के प्रयत्न में लगा है जो आगम, तक और अनुभवके सबंधा विरुव है।
यहाँ निश्चयह छह कारकोंका उपचार कैसे होता है इसका निर्देश करते हुए अपर पक्षने कार्यकारण विषममें लिखा है कि 'उपादान वस्तगत कर्मत्वका आरोप आप कौनसी अन्य वस्तुमें करेंगे।' समाधान यह है कि उपादानका अपना कार्य बास्तविक कर्म है उसमें व्यवहार हेतु रूपसे स्वीकृत अन्य वस्तुके कर्मका आरोप करके उसे उसका नैमित्तिक (कार्य) कये। इसमें कहाँ किस प्रकारका उपचार गृहीत है इसका सम्यक् परिज्ञान हो जाता है।
कुम्हार और जुलाहेका जो योग और विकल्परूप व्यापार होता है उसमें व्यवहार हेतृप्ता इसलिए घटित होती है, क्योंकि जमकी क्रमश: पट और पट कार्यके साथ कालप्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिए गहों कि कुम्हार और जलाहा घट और पटके यथार्थ में सहायक हैं। क्योंकि उन्हे घट और पद के वास्तविक सहायक माननेपर प्रत्येक द्रध्यकी वास्तविक स्वतन्त्रताको हानिका प्रसंग उपस्थित हो जाता है जो युक्त नहीं है। घदादि कार्योकी उत्पत्ति वास्तव में अपने-अपने उपादानके व्यापारसे हुआ करती है, बाह्य सामग्रोके व्यापारसे उनकी उत्पत्ति कहना यहीं उपचार कथन है । बाह्य सामग्नों के साथ दुसरंके कार्यका अन्धम-व्यतिरेक तन जाता है. मात्र इसलिए बाह्य सामग्रोको
कारणा कहना उचित नहीं है। कौन बंधार्थ कारण है और कौन उपचरित कारण है इसका निर्णय अनुपरित और उपचरित कारणताके आधारपर करना ही ठीक है। बाह्य अन्वय-यतिरेक अन्तरंग ध्यतिरेकका सहचर है । इरालिए इनमें कालप्रत्यासत्ति जन जानेसे बाह्य व्याप्तिको ध्यान में रखकर यह भी कहा जाता है कि कुम्हारने अपना विवक्षित व्यापार बन्द कर दिया इसलिए घट नहीं बन रहा है। किन्तु है यह कथन उपचरित हो । वास्तविक कथन यह है कि उस समय मिट्टीने स्वयं कर्ता होकर अपना घटरूप व्यापार बन्द कर दिया, इसलिए ट नहीं बन रहा है। आचार्य विद्यानन्दिने कालप्रत्यासत्तिरूप अन्वय-व्य निरेकको देखकर जो अन्य वस्तुको सहकारी कहा है वह व्यवहारसे ही कहा है, यथार्थ में नहीं । सो ऐसे व्यवहारका निषेध नहीं । यतः यह व्यवहार साधार होता है, इसलिए
आधारकी अपेक्षा इसे परमार्थसत् भी कहते हैं। हाँ यदि निश्वयको अपेक्षा विचार किया जाय तो यह अभूताब हो कहा जायगा । यह तो वस्तूस्वभाव है कि कुम्हारके विवक्षित व्यापारके समय ही मिट्टी घटरूप कार्य करतो है । तभी तो इनका कालप्रत्यासत्तिरूप अन्षय-व्यतिरेक कहा गया है और सभी कुम्हारको घटका व्यवहार हेतु कहा गया है।
यहाँपर अपर पक्षने अन्तव्याप्ति और बाह्य व्याप्तिक जिस अटल सिद्धान्तका निरूपण किया है उसपर वह स्थिर रहे यह हमारी कामना है । नभो समयसार गाथा ८४ को आत्मरूयाति टीकाका अपर पक्ष द्वारा उद्धृत किया जाना सार्थक है। प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रुवस्वरूप है, वह स्वसहाय है, इस सिद्धान्तको भीतरसे स्वीकार कर लेने पर परसहाय कहना उपरित कैसे हैं यह समझ में आ जाता है। अपरपक्ष विबादको स्थितिका त्यागकर इस ओर ध्यान दे यह निवेदन है। प्रत्यक्षसे जैसा प्रतीत होता है