Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 469
________________ शंका १७ और उसका समाधान अपर पक्ष यह मानना चाहता है कि उपादानसे भिन्न अन्य वस्तु उपादानके कार्य में वास्तव में सहयोग करती है या उसे वास्तवमें परिणमासी है तो ऐसा मानना मिथ्या है। उपादानके कार्यमें उससे भिन्न अन्य बस्तुको इसीलिए अकिचिकर कहा गया है। आदानसे भिन्न वस्तुम अपने बारीका कारण धर्म वास्तविक है इसलिए उपचार निराधार नहीं किया जाता' यह सच है । किन्तु वह कारण धर्म अपनेसे भिन्न अन्य वस्तुके कार्यका नहीं है, फिर भी प्रयोजन विशेषको ध्यानम रखकर उसे अन्य वस्तुके कार्यका कारण कहा जाता है, इसलिए उसमें अन्य वस्तु के कार्यके वास्तविक कारणका आरोप करना लाजिमी होजाता है। अन्यथा उसे अन्य वस्तु के कार्यका कारण त्रिकालमैं नहीं कहा जा सकला । अपर पक्ष आलापपद्धतिमें निर्दिष्ट किये गये उपचार प्रकरण में आये हर उन वचनोंपर दृष्टिपात कर ले । उन पर दृष्टिपात करनेसे अपर पक्षको समझमें यह बात अच्छी तरहसे आजायगो कि एककी कारणताको यदि दूसरेके कार्यको कारणता कहा जाता है तो कारणतामें भी कारणताका आरोप करना बन जाता है। एक शूरवीर बालकको यदि दूसरा शूरवीर बालक कहा जाता है, जैसे आजके बलशाली मनुष्यको अतीत कालमें हुए भीमको अपेक्षा भीम कहना, तो एक शूरवीर बालक में दूसरे कारवोर बालककी अपेक्षा शुरवीरताका कारोप करना बन जाता है। प्राणोंको वास्तविक सहायक सामग्री तो स्वयं उनका उपादान है,अन्न नहीं । फिर भी अन्नको प्राणोंका सहायक कहना यह आरोपित कथन है । इसे वास्तविक मानना यही तिच्या है ! से पहीचा किम ही है। स्पष्ट है कि अन्य वस्तु अन्यके कार्यका निमित्त कारण वास्तविक नहीं है, उपचरित ही है। बालकको शुरवीरतामें पहले सिंहको शूरवीरताका आरोप होगा और इस माचारपर उसमें सिंहका आरोप कर उसे सिंह कहा जायगा। इसी प्रकार अन्न को प्राण क्यों कहा गया है इस विषय में भी स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। __ एक द्रव्यके कार्यके प्रति दूसरी वस्तु स्वयं निमित्त (कारण) नहीं है। यह तो व्यवहार है । अतः आगममें अन्य वस्तुको दूसरे के कार्यके प्रति स्वभावत: सहयोगी नहीं माना गया है। यही कारण है कि 'अन्य वस्तु दूसरेके कायम वास्तव में अकिचित्कर है हमारा यह मानना युक्तियुक्त है। एक हम ही क्या, कोई भी व्यक्ति यदि परमै कारणताको वास्तविक मानकर परको उठाधरीकै विकल्प और योगप्रवृत्ति करता है तो उसे अशानका फल ही मानना चाहिए । इसी तम्पको ध्यान में रखकर निष्कर्षरूपमें प्रवचनसार गाथा १६ को सूरिकृत टोकामें मह वचन उपलब्ध होता है अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकस्वसम्बन्धोऽस्ति, यत; शुद्वात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रैभूयते । अतः निवयसे परके साथ यात्माका कारका सम्बन्ध नहीं है, जिससे कि शुद्धात्मस्वभावको प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य सामग्री) ढूँढ़ने की व्यग्रतावश जीव परतन्त्र होते हैं। ___ अन्य वस्तुमै कारणताका आरोप साधार किया जाता है। उसे निराधार कहना उचित नहीं है। दुसरेके उपादान में अन्यके उपादानका आरोग करना हो निमित्तकारण कहलाता है। भ्रमका निरास करनेके लिए हो एकको उपादान कारण और दूसरेको निमित्त कारण कहा जाता है। तात्पर्य एक ही है। इसलिए पहले उपादान लाका आरोग किया जाता है। बादमे निमित्तताका, ऐसा नहीं है। बाह्य वस्तुका अन्यके कार्य के प्रति स्वयं महत्व नहीं है। अपने अज्ञानरूप अपराधके कारण उसे अपने द्वारा महत्व

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