Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 471
________________ शंका १७ और उसका समाधान उसे किसी अपेक्षासे मान्य रखते हुए भी वस्तुगत यार्थ योग्यताको ध्यानमें रखकर निर्णय करना उचित है। तभी उस प्रत्यक्षज्ञानको प्रमाणीभूत माना जा सकता है। अन्यथा नहीं । यदि बाह्य व्याप्तिके प्रत्यक्षीकरणको प्रमाण माना जाय और उस आधारपर यह कहा जाय कि मिट्टी तो घटका उपादान है पर कुम्हारके विवक्षित व्यापार के अभाव में घट नहीं बन रहा है तो यही मानना पड़ेगा कि वस्तुत: ऐसा कहनेवाला व्यक्ति घटकी अपने उपादानके साथ रहनेवालो गन्ताप्तिको स्वीकार नहीं करना चाहता जो युक्त नहीं है। जो आबालवृद्ध कार्यकारणभावकी सम्यक् व्यवस्थाको न जानकर मात्र प्रत्यक्षके आधारपर एकान्त पक्षका समर्थन करता है उसकी वह विचारधारा कल्पनारोपित हो है इसमें सन्देह नहीं. क्योंकि उस विचारधारा अन्ताप्तिके निश्चयपूर्वक ही सम्यक् कही जा सकती है, अन्यथा नहीं । घटादि कार्योंके प्रति कुम्हार आदिका व्यापार अनुकूल होता है यह कथन बाह्य व्याप्तिको ध्यानमें रखकर किया गया है और बाह्य व्याप्तिका कश्न कालप्रत्यासत्तिके आधारपर किया गया है । तथा दो द्रव्योंके विवक्षित परिणामान कालमत्वासक्ति कैसे बनता है. इसका समाधान वस्तुगल स्वभावके आधारपर किया गया है। इससे यह फलित हुआ कि ऐसा न्यगत स्वभाव है कि जब-जब मिट्टी घटरूपसे स्वयं कर्ता होकर परिणमती है तब तब कुम्हारका विवक्षित व्यापार नियमसे होता है। अपर पक्षने अपनी इस प्रतिशंकामे प्रवचनसार गाथा १०२की मुरिकृत टोका तथा समयसार गाया ८४ को आत्मख्याति टोका आदिके जो उद्धरण उपस्थित किये है सनका उक्त टोका वचनोंके अनुसार अर्थ न कर इस पद्धतिसे असं किया है, जिससे साधारण पाठक भ्रममें पड़ जाय और इस प्रकार उक्त टोका वचनोंसे अपना अभिप्राय पुष्ट करना चाहा है। उदाहरणार्थ अनगारघमित प्रथम अध्याय श्लोक १०२ के अपर पक्ष द्वारा किये गये अर्थपर दृष्टिपात कोजिए । वह श्लोक इस प्रकार है काद्या वस्तुनी मिशा येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ५१०२।। जिसके द्वारा निश्चय (मृतार्थ-यथार्थ) नयकी सिद्धिके लिए वस्तुसे भिन्न (पृथक् ) कर्ता आदि कारक जाने जाते हैं वह व्यवहार है तथा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको जानना निश्चय है ॥१०२।। यह उक्त इलोकका पास्तविक अर्थ है। इसके रचयिता पण्डितप्रवर माशाघरजोने इस श्लोकका स्वयं यह अर्थ किया है किन्तु इसके विरुच अपर पक्षने इसका जो अर्थ किया है वह यद्यपि साधारण पाठकके ध्यान में नहीं आयगा, फिर भी यह अर्थ सोद्देश्य किया गया है, इसलिए यहाँ दिया जाता है। उक्त श्लोकका अपर पक्ष द्वारा किया गया वह अर्थ इस प्रकार है जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिए ( उपादान भूत ) वस्तुसे भिन्न कर्ता आदिकी सिद्धि की जाती है वह व्यवहार कहलाता है और जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है वह निश्चय कहलाता है।।१०।। अपत श्लोकके ये दो अर्थ है । एक वह जो वास्तविक है और दूसरा बह जो वास्तविक तो नहीं है, किन्तु अपने विपरीत अभिप्रायकी पुष्टिके लिए जिसे अपर पक्षने स्वीकार किया है। अब हमें इस बातका विचार करना है कि अषत इलोकका हमारे द्वारा किया गया अर्थ ठीक क्यों है और अपर पक्ष द्वारा किया गया अर्थ ठीक क्यों नहीं है। उक्त श्लोकमें आये हुए 'निश्चयसिद्धये, साश्यन्ते' और 'तदभेदक' ये पद ध्यान देने योग्य हैं।

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