Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 472
________________ ८४६ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा स्वयं पण्डितप्रवर आशाघरजीने इनमेंसे 'साध्यन्ते' पदका अर्थ किया है-'ज्ञाप्यन्ते' 'निश्चयसिद्धये' पदका अर्थ किया है-'भूतार्थनयमाप्स्यर्थम्' तथा 'सदभेदर' पदका अर्थ किया है-तेषां कादीनामभेदेन वस्तुनोऽनन्तरस्पेन दृक् प्रतिपत्तिः।' उक्त पदोंका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा-'साध्यन्ते'--जाने जाते है, "निश्चसिद्धयेभूतार्थनयकी प्राप्ति के लिए, तथा 'तदभेददक-वन कादिकके अभेदसे वस्तुका अभेदरूपसे देखता जानना । किन्तु अपर पक्षने इन तीनों पदोंका अर्थ किया है-'साध्यन्ते-सिद्धि की जाती है, निश्चयसिद्धये—निश्चयकी सिद्धिके लिए तथा तदभेददक' जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है। कर्ता आदिक वस्तुसे अभिन्न है, इसका नाम निश्चय है । यह यथार्थ है। इसे जाननेवाले निश्चयनय (भूतार्थनय-यथार्थनय) को सिद्धि ऐसे व्यवहारसे होती है जो वस्तुसे भिन्न कर्ता आदिका ज्ञान कराता है, यह उक्त श्लोकका तात्पर्य है। पण्डितजीने इसी ग्रन्थ के अध्याय १ श्लोक ९९ में व्यवहारको अभूतार्थ कह कर अभूतार्थका अर्थ अविद्यमान इट विषयरूप किया है। इससे ज्ञात होता है कि प्रत्येक बस्तुके कर्ता आदि धर्म उससे अभिन्न ही होते हैं। उससे भिन्न वस्तुमें उस वस्तुके कर्ता आदि धोका अत्यन्त अभाव ही होता है। इसलिए एक वस्तु के कर्ता आदि धर्म दूसरी वस्तुमें मानना यथार्थ न होकर मात्र व्यवहार ही है। इसे परमागममें जो असद्भुत ध्यबहार कहा है उसका कारण भी यही है। अनमारधर्मामृतके उक्त वचनमें यद्यपि 'आरोप' शब्द न आकर 'व्यवहार' शब्द ही आया है । पर यहाँ 'व्यवहार' पदसे क्या अर्थ लिया गया है इसका जब सम्यक ज्ञान किया जाता है तो यही ज्ञात होता है कि उपादानमें रहनेवाले कर्ता आदि धोका अन्य वस्तुमें आरोप करना यही व्यवहार यहाँ पर इट है । यहाँ पर 'निश्चय' पदसे क्या अर्थ लिया गया है इसका ज्ञान प्रकरणसे हो जाता है। प्रकरण कार्य-कारणभावका है । कार्य कारणसे अभिन्न होता है इसका ज्ञान निश्चयनय कराता है। इसलिए इसे यथार्थ कहा गया है, क्योंकि परिणाम परिणामीमें अभेद होनेसे प्रत्येक वस्तु स्वयं आप का होकर उसरूप परिणमतो रहती है। इसके प्रकाश में जब हम कार्य कारणसे भिन्न होता है इस कथन पर विचार करते हैं तो वह असद्भूत ही प्रतीत होता है, क्योंकि वह कारण कैसा जो विवक्षित कार्यसे भिन्न दूसरा कार्य करते हुए भी उस विवक्षित कार्यका कारण कहलाये । स्पष्ट है कि विक्षित कार्यसे भिन्न वस्तुको उसका कारण कहना आरोपित कथन ही होगा। उससे विवक्षित कार्यके यथार्थ कारणका ज्ञान तो हो जाता है, पर वह स्वयं उसका यथार्थ कारण कहलानेका अधिकारी नहीं है। 'कत्रांचा वस्तुनो भिसाः' इस वचन द्वारा यही बतलाया गया है। अपर पक्षने "मिट्टीसे बड़ा बना है। तथा कुम्हारने घड़ा बनाया है' इन दोनों प्रकारके लौकिक बचनोंको ठीक मानते हए' लिखकर यह भ्रम फैलानेकी चेष्टा की है कि हम भी इन दोनों बचनोंको लोकिक वचन मानते हैं। किन्तु यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि उक्त वचनोंमें 'मिट्रीसे घड़ा बना है' यह वचन यथार्थ है और 'कुम्हारने घड़ा बनाया है। यह वचन लौकिक है। हमने लिया था कि 'इन वचन प्रयोगोंमें मिट्टी के साथ जैसी घटको अन्तर्व्याप्ति है वैसी कुम्हारके साथ नहीं।' इसपर आपत्ति करते हुए अपर पक्षका कहना है कि 'उक्त दोनों प्रयोगों में घटकी मिट्रीक साथ

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