Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १७ और उसका समाधान भेद उपजाकर कथन करनामात्र हैं और असद्भूत व्यवहारनयका विषय एक वस्तुमें अन्य वस्तुके गुण-धर्मका प्रयोजनादिवश आरोपकर कथन करमामात्र है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब कि प्रत्येक वस्तु त्रिकालाबाधित अखण्डरूपसे परमार्थ सत् है तो उसे विषय करनेवाले ज्ञानको निश्श्चयनय क्यों कहा गया है। ऐसे झामको प्रमाणशान क्यों नहीं कहते? समाधान यह है कि यह ज्ञान धर्म और कालादि विशेषणसे विशिष्ट वस्तुको विषय नहीं करता, इसलिए यह शान नयज्ञान ही है और चौक वस्तु स्वभावसे अभेद-एकरूप ही परमार्थसत् है, इसलिए इसे स्वीकार करनेवाले नयविकल्पको निश्चयनय कहते हैं।
इस प्रकार 'व्यवहार' पदका क्या अर्थ है ? उसे हमने अपने पिचले उत्तरमें उपचरित या आरोपित क्यों बतलाया इसका सप्रमाण स्पष्टीकरण हो जाता है। साथ ही अपर पक्षने निश्चय मोर व्यवहारको जो एक-एक धर्म स्वरूप बतलाया है वह ठीक नहीं है यह भी ज्ञात हो जाता है ।
३. 'मुख्याभावे' इत्यादि धवनका स्पष्टीकरण अपर पक्षने हमारे द्वारा निर्दिष्ट किये गये उपचारके लक्षणको मान्य कर लिया यह तो प्रसन्नताकी बात है। किन्तु उसे 'मुख्याभावे सति निमिने प्रयोजनेच उपचारः प्रवर्तते' इस वचनमें पठित 'निमित्ते' पद पर विवाद है। उसका कहना है कि 'उपचारके इस अर्थम हमारे आपके मम्म अन्तर यह है कि जहां आप उपचारको प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलाने के लिए करना चाहते है वहाँ हमारा कहना यह है कि उपचार करने का कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्यों हो और उपचार प्रवृत्तिका कोई निमित्त (कारण) वहाँ विधमान् हो तो उपचारकी प्रवृत्ति होगी।' समाधान यह है कि आलापपद्धति के उक्त वचन द्वारा 'मुख्यामाचे ससि इस वचनका निर्देश कर यही तो बतला दिया गया है कि जहाँ व्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन बतलाना इष्ट हो वहाँ उपचारको प्रवृत्ति होती है। यहाँ निमित्त' और 'प्रयोजन' शब्द 'मुख्य हेतु' और 'मुख्य प्रयोजन' के अर्थमें प्रयुक्त नहीं हुआ है, अन्यथा उक्त वचनमें 'मुख्याभावे सति' इस घचनका सनिवेश करना त्रिकालमें सम्भव नहीं था आगम में उपचार कथनके जितने उदाहरण मिलते है उनसे भी यही सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ 'सिंहोऽयं माणवकः' इस वचनपर दृष्टिमात कीजिए। इस द्वारा वालकमें सिंहका उपचार किया गया है। इसका कारण जिस गणके कारण तिर्यपत्र विशेष ययार्थमें 'सिंह' कहलाता हे. 'सिंह' के उस गुणका बालक सद्भाव स्वीकार करना ही सो है। यही उपचार करने का बयवहार हेतू है। अपर पक्ष ऐसा एक भो उदाहरण उपस्थित नहीं कर सकता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि एक ट्रॅव्यका धर्म दूसरे द्रव्य में वास्तव में पाया जाता है। देखो, समयसार गाथा १०० में अज्ञानी जीवके योग और विकल्पको चटका निमित्तकर्ता कहा है। क्या अपर पक्ष यह साहस पूर्वक कह सकला है कि ये धर्म जोवके न होकर मिट्टी के हैं। यदि नहीं, तो अशानो जीवके उन धर्मोको घटका निमित्त या निमित्त का कहना क्रमसे उपचरित तथा उपवरितोपभरित हो तो होगा । प्रकृतमें 'सति निमिसे प्रयोजनेच' का यही तात्पर्य है और इसो तात्पर्यको स्पष्ट करने के लिए आला पपद्धति के उक्त वचन में 'मुख्यामाचे' पद दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपर पनने उक्त वचनके आधार पर हमारे और अपने बीच जिस मतभेदको चरचा की है वह वस्तुस्थितिको ज्यानमें न लेनेका ही परिणाम है। यदि अपर पक्ष आलापपद्धतिके उस प्रकरण पर ही दृष्टिपात कर ले जिम प्रकरणमें यह वचन आया है तो भो हमें आशा है कि बल पक्ष मतभेदको भूलकर इस विषयमें हमारे कथनसे सहमत हो जायगा।
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