Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १७ और उसका समाधान
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कर्ता आदि षट्कारक धर्मो को यथार्थ रूप में स्वीकार किया गया है। इसके लिए समयसार परिशिष्टपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें जोब भावशक्ति और कियाशक्तिका अस्तित्व बतलाने के बाद कर्मशक्ति, शक्ति, करणशक्ति सम्प्रदानयति अपादानसकित और अधिकरणशक्ति में छह कारक शक्तियों निर्दिष्ट की गई स्पष्ट होता है परिणामलक्षण कार्यका यथार्थ उपादान होनेके साथ यह उसका मात्र आश्रय न होकर कर्ता भी है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक वस्तुका अपना वस्तुत्व दूसरी वस्तु कार्यका यथार्थ निमित्त अवश्य ही नहीं है। यही कारण है कि यथ-मोश में अन्य वस्तुको व्यवहारसे (उपचार) निमित्त कहा है और जीवको निश्वयसे परमार्थ ) हेतु कहा है। इस सन्दर्भ में जब हम अपर के उक्त वक्तव्यपर दृष्टिपात करते है तो हमें अपर पक्षका उक्त कथन भागमविषद्ध ही प्रतीत होता है। इस छोटेसे वक्तव्यमें अपर पलने परस्पर विरुद्ध ऐसी मान्यताओंका समावेश कर दिया है जिनकी सोमा नहीं। जब कि अपर एसके कथनानुसार एक वस्तुका अपना वस्तुत्व उपादान ही नहीं तो वह अपने कार्यका यथार्थ आश्रय कैसे बन सकता है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे । और साथ हो जब कि दूसरी वस्तुका अपना वस्तुत्व निमित्त नहीं तो वह दूसरेके कार्यका यथार्थ सहकारी कैसे कहला सकता है। हम तो अपर पक्ष के इस कथन से यही समझे हैं कि यह वास्तवमे वस्तुके वस्तुखमें हो संदिग्ध है। हमने नि छ कारक और व्यवहार छह कारक स्वीकार किये है इसमें सन्देह नहीं परन्तु स्वीकार करने के साथ हमने यह भी तो बतलाया है कि निश्चय छह कारक कारक कथनमात्र है, विट्टी घड़े को धोका पड़ा कहने के समान
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यथार्थ है, और व्यवहार ह
हम जिसके साथ कार्यको वाह्य व्याप्ति पाई जाती है उसमें कर्त्ता जाता है।' यह लिखा है। साथ ही इसी प्रसंगमें हमने यह भी लिखा है कि व्याप्ति पाई जाती है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका आलम्बन कर जिसमें कर्ता निमित्त करते हैं।' आदि।
आदि निर्मित व्यवहार किया जिस दूसरे पदार्थ सामा व्यवहार होता है उसे कर्ता
इसपर अपर पाने 'निमित्तरूप व्यवहारका आलम्बन कर इस वाक्यांशके आधार लिखा है कि इस वाक्यका वर्ष उस दूसरे पदार्थ उपादानको कार्यरूप परिणति के अनुकूल जो सहायतारूप व्यापार हवा करता है जिसके आधार उसमें बहिर्व्याधिको व्यवस्था बन सकती है, यदि आपका अभीष्ट अर्थ हो तो वह व्यापार उस दूसरे पदार्थका वास्तविक व्यापार ही तो माना जायेगा उसे वास्तविक कैसे कहा जा
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होनेका नियम है मात्र
ता है।' आदि समाधान यह है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके कार्य महातारूप व्यापार करता है वह माथनमात्र है। प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना व्यापार स्वयं करते हैं पर उनके एक साथ इसलिये वहाँ उपादान भित्र दूसरे के कार्य में निमित व्यवहार किया जाता है कल्पनारोपित नहीं है । व्यवहार षट्कारक विकल्प वश वस्तुमें ऐसे ही आरोपित किये घड़ेको वीका घड़ा कहा जाता है ।
जैसे धीका महा कहना जाते हैं जैसे— मिट्टो के
५. तस्वार्थश्लोकयार्तिक के एक प्रमाणका स्पष्टीकरण
तत्त्वार्थरुपातिक पृ० १५१ प्रमाणको पर पक्ष अनेक बार उपस्थित कर आया है और हम मी उसका कहीं से तथा कहीं विस्तारसे समाधान भी कर आये हैं। अपर पक्षने यहाँ पुनः उस प्रमाणको उपस्थित किया है। उसमें द्विष्ठ कार्यकारणभावको व्यवहारनवसे परमार्थभूत कहा गया है। मात्र इसी कारण