Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 461
________________ शंका १७ और उसका समाधान ८३१ है और दुसरा धर्म व्यवहार है यह अपर पक्षको अपनी कल्पना है, आगम नहीं। आलापपद्धतिमें निश्च और व्यवहारके लक्षणांका निर्देश करते हुए लिखा है अभेदानुपचारया वस्तु निश्चीयते इति निश्चयः, भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहारः । अभेद और अनुपचाररूपसे वस्तु निश्चित करना निश्चय है तथा भेद और उपचार रूपसे वस्तु व्यवहृत करना व्यवहार है । निश्चय और व्यवहारके इन लक्षणों में अध्यात्मदृष्टिसे प्ररूपित लक्षणों का भी समावेश हो जाता है, इसलिए यहाँ पर हमने उनका पृथक्से निर्देश नहीं किया है। निश्चय और व्यवहार के ये सामान्य लक्षण है, अतः इनका यथाप्रयोजन अपने उत्तर भेदांमें घटित होना स्वाभाविक है। यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि उक्त लक्षण निश्वयनय और व्यवहारनयकी मुख्यसासे प्ररूपित किये गये हैं, किन्तु इससे निश्चय और व्यवहार के स्वरूपका स्पष्टोकरण हो जाता है । इनके स्वरूपपर भोक्षमार्गको दृष्टिसे स्पष्ट प्रकाश डालते हुए समयसार गाथा ७ की श्रात्मख्याति टोकामें लिखा है शुद्ध आस्तां तावद्वन्धप्रत्यय । यतो घनन्सधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवयोधविधायिभिः कैश्चित् मैं स्तमनुशासितां सूरीणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्स्वेकद्रव्य निपीतानन्तपर्यायत्तयैकं किञ्चिम्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रम् ज्ञायक एवं एक शुद्धः । ज्ञायक आत्माकं बन्धपर्याय निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही विद्यमान नहीं हैं, क्योंकि अनन्त धर्मवाले एक धर्मीका जिन्हें ज्ञान नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको उसे (धर्मीको ) बतलानेवाले कितने ही धर्मों द्वारा उसका अनुशासन करनेवाले आचार्योंका ऐसा उपदेश है कि यद्यपि धर्म और धमम स्वभावसे अभेद है तो भी नामसे भेद उपजाकर व्यवहारमात्रसे ही ज्ञानीक दर्शन है, ज्ञान है, चारि है । परन्तु परमार्थसे देखा जाय तो एक द्रव्यके द्वारा पिये गये अनन्त पर्यायपनसे जो एक है, किचित् मिलित आस्वादवाला है, अभेदरूप है और एकस्वभाव है ऐसी वस्तुका अनुभव करनेवालेके न दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र हूं - एकमात्र शुद्ध ज्ञायक है । इसी तथ्यको उदाहरण सहित सरल शब्दों द्वारा समझाते हुए आचार्य जयसेन उक्त गाथाको टीका में लिखते है यथा निश्चयनयेनाभेदरूपेणाग्निरेक एव पश्चाद् भेदरूपव्यवहारेण दहति दाहकः पचतीति पावकः प्रकाशं करोतीति प्रकाशक इति व्युपस्या विषय मेदेन त्रिधा भिद्यते । तथा जीवोऽपि निश्चयरूपाभेदनयेन शुद्धचैतन्यरूपोऽपि भेदरूपव्यवहारनयेन जानातीति ज्ञानं पश्यतीति दर्शनं चरतीति चरित्रमिति स्युपस्या विषयभेदेन त्रिधा भिद्यत इति । जिस प्रकार से अभेदरूपसे अनि एक ही है, पदचात् भेदरूप व्यवहारसे दहन करती है, इसलिए दाहक है, पचाती है, इसलिए पाचक है और प्रकाश करती है, इसलिए प्रकाशक है इस तरह व्युत्पत्तिकरनेपर विषयभेद से तीन प्रकारके भेदको प्राप्त होती उसी प्रकार जीव भी निश्चयरूप अभेदनयसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप होकर भा भेदरूप व्यवहारनयसे जानता है, इसलिए ज्ञान हैं, देखता हूँ, इसलिए दर्शन है

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