Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा
प्रतिशंका ३ का समाधान प्रथम उत्तरमें मल प्रश्न के अनुसार और द्वितीय उत्तरमै अपर पक्षके प्रपत्र के अनुसार विचार किया गया है। तत्काल अपर पक्षके प्रपन ३ पर विचार करना है।
१. पुनः स्पष्टीकरण इसे प्रारम्भ करते हुए अपर पक्षने अपने पुराने निचारोंको दुगया है। हमने प्रथम उत्तरमें उपचारका स्वरूप बतलाते हुए लिखा था कि 'परके सम्बन्ध (आश्रय) से जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते है।' इसमें 'सम्बन्ध' पदके साथ उसका पर्यायवाची 'आश्रय' पद आया है।' अपर पक्षने 'आप' पदका 'आधार' अर्ध कर अपने प्रपत्र २ में जो आपत्ति उपस्थित की थी उसका समाधान हमने यह लिखकर कर दिया था कि 'वहाँ आश्रयका अर्थ सम्बन्ध स्त्रयं लिखा गया है। अपर पक्षने पुनः उसे दुहराया है, इसलिए इतना संकेत करना पड़ा। विचार कर देखा जाय तो उस लमणमैं ये दोनों शब्द आलम्बनके अर्थमं प्रयुक्त
२. व्यवहारपदके विषय विशेष स्पष्टीकरण अपर पक्षने इसी प्रसंगमें 'यबहार' पदके अर्यके विषवमें भी स्पीकरणकी पृच्छा की थी। उसका हमने अपने उत्तर २ में इतना ही स्पष्टीकरण किया था कि उपचार और प्रारोप पद इसी अर्थमें प्रयुक्त हुए हैं। अगर पसने अपने पत्रक ३ में लिखा है कि व्यवहार पदका अर्थ हमने अज्ञात होने के कारण नहीं पूछा था1' और इसके बाद उस पक्षने ऐसे अनेक धर्म युगल इस पत्र में निदिक्ष किये है जिनमेसे प्रयमको निश्चय
और दुसरेको व्यवहार कहा गया है। यया 'व्य और पर्यायके विकलोंमें दयरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता मवहार है ।........मुक्ति और संसारके विकल्पों में मुक्ति निश्चय है ओर संसार व्यवहार है।' आदि।
आगे अपर पक्षने लिखा है कि 'इस प्रकार प्रत्येक वस्तुमें यथासम्भव विद्यमान अपने-अपने अनन्त धर्मों की अपेक्षा परस्पर विरुद्ध अनन्त प्रकारके निश्चय और व्यवहारके युगलरूप विकल्प पाये जाते हैं । जैन संस्कृति में वस्तुको अनेकान्तात्मक स्वीकार किया गया है इसलिए उपयुक्त निश्चय और व्यवहारके विकल्प परस्पर विरोधी होते हुए भी वस्तुमे परस्पर समन्वित होकर ही रह रहे हैं। एकत्व और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, लद्पता ओर अतद्रूपता, सदूपता और असद्रूपता, अभेदरूपता और भेदरूपता इत्यादि युगलोंमें भी पहला विकल्प निश्चयका और दूसरा विकल्प व्यवहारका है। चूंकि ये सभी वस्तुके ही धर्म है, अत: अपने-अपने रूपमें सद्भूत है, केवल असद्भूत नहीं है।'
निश्चय किसे कहते है और व्यवहार किसे कहते हैं इस सम्बन्धमै यह अपर पक्षका वक्तव्य है । अपर पचने किस आगम प्रमाणके आधारसे यह स्पष्टीकरण किया है इसे देनेको उस पक्षने इसलिए सम्भवत: आवश्यकता नहीं समझी होगी, क्योंकि वह पक्ष आयमके स्थानपर सर्वत्र अपने विचारोंको ही प्रधानता देता हमा प्रतीत होता है। यदि हमने व्यवहार शब्दका अर्थ स्पष्ट नहीं दिया था और अपर पक्ष उसे जानता
तो उस पक्षका यही कर्तव्य था कि आगमप्रमाण देकर उसका स्पष्टीकरण कर देता । हमने अभी तक जितने भी आगमोंका अवलोकन किया है उनमें न तो निश्चयको ही एक-एक धर्मरूप प्रतिपादित किया गया है और न व्यवहारको ही एक-एक धर्मरूप प्रतिपादित किया गया है। दो-दो धर्मयुगलोंमें प्रथम धर्म निश्चय