Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 458
________________ ८२८ जयपुर (खानिया ) तश्वचर्चा अन कुम्हार आदि आवश्यक निमित्तकारणोंका सहयोग लेना चाहिये । 'निश्चयकी सिद्धि के लिये' इस वापांशका अभिप्राय यही है। इस तरह अनगारधर्मामृतका उक्त श्लोक कर्ता, करण आदिरूपसे घटादि कार्य के प्रति मिट्टी आदि उपादानको वास्तविक सहयोग देनेवाले कुम्हार आदिके उस सहयोगको वास्तविक हो सिद्ध करता है, कल्पनारोपित नहीं । इसलिये इससे आपके अभिप्रायकी कदापि सिद्धि नहीं हो सकती है। मिट्टीसे घटा बना है' तथा 'कुम्हारने घड़ा बनाया है। इन दोनों प्रकारके लौकिक वचनोंको ठीक मानते हा आपने जो यह लिखा है कि 'इन वचन प्रयोगोंमें मिदोके साथ जैसी घटको अन्तर्धारित है बमो कुम्मकार के साथ महीं।' इसके विषयमें हमारा कहना यह है कि उक्त दोनों प्रयोगोंमें घटकी मिट्टीके साथ जैमी अन्नानि अनुभूत होती है वैसी अन्ताप्ति उसकी कुम्हारके साथ अनुभूत नहीं होती, इसका कारण यह नहीं है। कि मिट्टी घटके प्रति वास्तविक (सदरूप) कारण है और कुम्हार सिर्फ कल्पनारोपित (असदरूप) कारण, बल्कि इसका कारण इतना ही है कि जिस प्रकार आश्रय होनेके कारण उपादानभूत मिट्टो घटरूप परिणत हो जाती है उस प्रकार केवल सहायक होने के कारण निमितभूत कुम्हार कदापि घटरूप परिणत नहीं होता। अत: उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके आधार पर घट की मिट्रोके साथ ती अन्तर्व्याप्ति बतलायी है और इससे भिन्न-मिमित्त नैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभावके आधार पर घटको कुम्मकारके साथ अन्नाप्ति न इतलाकर केवल बहिव्याप्ति हो वतलायी है। यही कारण है कि उक्त दोनों प्रकारके लौकिक प्रयोगों में भी अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है अर्थात् "मिट्टीसे घड़ा बना है' यह प्रयोग अन्सारितका होनेसे उपादानोपादेयभाव की सूचना मिट्टी और घड़ेमें देता है तथा 'कुम्हकारने मिट्टीसे घड़ा बनाया' यह प्रयोग बहिर्व्याप्तिका होने से निमित्तनैमितिकभावकी सूचना कुम्भकार और बड़े देता है, इसलिये दोनों प्रयोगोंमें समानरूपसे अन्तयाप्ति कैसे बतलायी जा सकती है। इस प्रकार निमित्तकारणभूत वस्तुएं उपादानोपादेयमावको अपेक्षासे अवास्तविक ( असद्प) होती हुई भी बहिव्याप्ति ( निमित्तनैमित्तिकभाव) की अपेक्षासे वास्तविक (सदरूप)ही है। इसका मीघा अर्थ यह है कि निमित्त, जिस कार्यका बह निमित्त है, उस कार्य में वह निमित्त ही बना रहता है उसका बड़ कभी भी उपादान नहीं बन सकता है । आगे आपने हमारे कयनको उद्धत करते हए यापत्ति उपस्थित की है कि परिमन अभयरूप होता है-यह बिना आगमप्रमाणके मान्य नहीं हो सकना,' इसके साथ ही आपने यह भी लिखा है कि 'यदि परिणमन उभयरूप होता, तो घटमें कुम्मकारका रूप आ जाता।' इसके विषय में हमारा कहना यह है कि आगममें स्वपर-प्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार किया गया है, इसके लिये प्रमाण भी दिये जा चुके हैं, आप भी स्वपर-प्रत्यय परिणमनीको स्वीकार करते है, अन्तयाप्ति और बहिर्याप्तिको व्ययस्थाको भी आपने स्वीकार किया है, इस तरह एक ही परिणमन या कार्यमें अन्तासिकी अपेक्षा उपादेयता और बहियाप्तिकी अपेक्षा नैमित्तिकता कप दो धर्मोको स्वीकार करना अमंगत नहीं है और न ऐसी स्वीकृतिको अशास्त्रीम ही कहा जा सकता है। 'निमित्त कार्यरूप परिणत नहीं होना, सिर्फ उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है. इस अनुभूत, युक्त और आगमसिद्ध अटल नियमके रहते हए कार्य में नैमित्तिकतारूप धर्म पाया जानेमासे उक्त कार्य निमित्त के रूपका प्रवेश प्रसक्त हो जायगाऐसी शंका करना उचित नहीं है ।

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