Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
का १७ और उसका समाधान व्यवहार आदि शब्द आगममें प्रयुक्त किये गये हैं, उन सब शब्दोंको निमित्त शब्दके ही पर्यायवाची शब्द समझना चाहिये अर्थात् जहाँ भी उपचारसे कारण, अथवा उपचरित कारण और क्यवहारसे कारण अथवा अपवहार कारण आदि वचन प्रयोग आगममें पाये जाते हैं उन सबका अर्थ निमित्तकारण हो करना चाहिये और निमित्तकारणताके भेदसे उन्हें उपचरित कर्ता, उपचरित करण, उपचरित संप्रदान, अपरित अपादान तथा उपचरित अधिकरण कहना चाहिये। कल्पनारोपित निमित्त या कल्पनारोपित कर्ता आदि नहीं कहना पाहिये। एक बात और है कि निभितभूत वस्तुओंके जिम व्यापार में आम निमित्तकारणता या निमित्त कर्तृत्वका आरोप करते हैं वह व्यापार तो वास्तविक ही है वह सी कमसे कम कल्पनारोपित नहीं है, इसलिये उसमें विद्यमान कार्योत्पत्तिके प्रति अनुकूलताको भो वास्तविक मानना ही युक्तिसंगत है, अत: निमित्त. कारणता. रहिर्याप्यव्यापकभाव. बहिर्याप्ति निमित्तनमित्तकभाव, नैमित्तिक कत कर्मभाव, निमित्त कर्तृत्व आदि सभी धर्म अपने रूममें वास्तविक अर्थात सतहद ही ठहरते हैं, कसमारोपित अर्थात अमत्रूप नहीं । हमने अपनी प्रतिशंकाम उपादान और निमित्त शब्दोंकी जो भाषाशास्त्रके आधारपर व्युत्पत्ति दिखलाई है, जससे भी निमित्तकारणको वास्तविकता ही सिद्ध होतो है।
इस प्रकार लोकमें और आगम में सर्वत्र घट, पटादि मिट्टी, सूत आदि वस्तुओंके स्थपरप्रत्यय परिणमन माने गये है, यही कारण है कि इनकी उत्पत्ति में स्व ( आश्रयभूत उपादान) के साथ निमित्तभूत परके वास्तविक सहयोगको आवश्यकता अनिवार्यरूपसे अनमत होनी है, असः परके माध अन्वय-पतिरेकके रूपमें महिाप्तिको भी वास्तविकरूपमें ही स्वीकार किया गया है, कल्पनारोपितरूपमें नहीं।
आपने जो यह लिखा है कि 'उपादाम वस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप निश्चियकी सिद्धिके लिये ही किया जाता है।' व इसके समर्थन में अनगारधर्मामतके 'काया वस्तुन।' भिन्नाः' इलोकको भी प्रमाणरूपसे उपस्थित किया है, लेकिन आपने यह स्पष्ट नहीं किया है कि आप वस्तुसे भिन्न कर्मादिका कौनसे निश्चयकी सिद्धिके लिये आरोप करना चाहते है? इसके अतिरिक्त पारोल-जिसे आप केवल कल्पनाका ही विषय स्वीकार करते है-से वास्तविक निश्चयकी सिद्धि कसे संभव हो सकती है, क्योंकि जो स्वयं कल्पनारोपित होनेसे 'असदरूप ही है उससे सद्रूप वस्तुको सिद्धि होना असंभव ही है। एक बात यह भी है कि अमगारधर्मामृतके उस इलोकमें 'आरोप' शब्दका पाठ न होकर 'न्यवहार' शब्दका ही पाठ पाया जाता है, उसका अर्थ आपने 'आरोप' कैसे कर लिया? यह आप ही जानें। अनगारधर्मामृतका वह श्लोक निम्न प्रकार है :
काचा वस्तुनो भिना येन निश्चयसिद्धये । - साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदहक ।।१०२।।
-अध्याय प्रथम इसका सही अर्फ निम्न प्रकार है :
जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिये ( उपदानभूत) वस्तू से भिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है वह व्यवहार कहलाता है और जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि को जाती है बह निश्चय कहलाता है।
इसका आशय यह है कि क्योंकि उपादानभूत मिट्टी प्रादि वस्तुओंसे घटादि वस्तुओंका निर्माण कुम्हार आदि निमित्तकारणों के सहयोगके बिना सम्भव नहीं है, अतः निमित्तका निमितकरण आदि के रूप में