Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १७ और उसका समाधान
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नहीं, क्योंकि इस अन्वय और व्यतिरेकको आचार्य विद्यानन्दिने तस्वादिलो कार्तिक में कालप्रत्यासत्तिके रूपमें स्वीकार करते हुए पारमार्थिक ही कहा है तथा उसमें कल्पनारोपितपनेका स्पष्ट निषेध किया है, जिसका उल्लेख हम पूर्वमें कर ही चुके हैं ।
इसी काल प्रत्यासत्तिरूप अन्वय तथा व्यतिरेकका ही अपर नाम निमितता या सहकारिकारणता है यह बात भी आचार्य विज्ञानन्दिने वहाँपर बतला दी है। ऐसी हालत में इस निमित्तता को भी अवास्तविक कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि यह सहारिकारणतारूप निमित्तता अपने आपमें वास्तविक न होकर यदि उपचारित ही है, तो इसके फलितार्थके रूपमें घटादिके साथ कुम्हार आदिका जो पूर्वोक्त ( कुम्हारके योगोपयोगरून व्यापारके होते हुए ही घटनिर्माण कार्य होता है और उसके उस व्यापार के प्रभावमें निर्माण कार्य चन्द रहता है ऐसा ) अन्वय तथा व्यतिरेक अनुभूत होता है, उसे भी उस हालत में अवास्तविक ही मानना होगा, ऐसी हालत में घटको भन्वय और व्यतिरेकरूप दहिर्व्याप्ति कुम्हार के हो साथ है, अभ्यके साथ नहीं तथा पटकी अन्वय और व्यतिरेकरूप बहिर्व्याप्ति जुलाहाके ही साथ है, अन्यके साथ नहीं - यह नियम कैसे बनाया जा सकता ?
यदि इसके उत्तर में आप यह कहना चाहें, कि प्रत्येक वस्तुको प्रत्येक पर्याय स्वाश्रित और स्वतः उत्पन्न होनेवाली ही है, इसलिये घटको कुम्हारके साथ और पदकी जुलाहे साथ जो बहिर्व्याप्ति बतलायी गयो है वह भी कल्पनारोपित हो है ।
तो फिर इस तरह के कथनको प्रत्यक्षका अपलाप ही कहना होगा । कारण कि यह तो कमसे कम देखने में आता ही है कि कुम्हारके योगोपयोगरूप व्यापारके होते हुए हो घटका निर्माण कार्य होता है और यदि वह कुम्हार अपना योगापयोगरूप व्यापार बन्द कर देता है तो चटका निर्माण कार्य भी बन्द हो जाता हूँ । आपने स्वयं अपने प्रथम वक्तव्य में आभ्यन्तर व्याप्ति के साथ स्वपर प्रत्यय कार्योत्पत्ति के लिये बहिर्व्याप्तिके अस्तित्वको स्वीकार किया है। इस विषय में आपने अपने प्रथम वक्तव्य में निम्नलिखित वचन लिखे है:
'ऐसा नियम है कि जिस प्रकार कार्यकी निश्चयकारकों के साथ आभ्यन्तर व्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकूल दूसरे एक या एक से अधिक पदार्थोंमें कार्यकी बाह्य व्याप्ति नियमसे उपलक्ष्य होती है । एकमात्र वस्तुस्वभाव के इस अटल नियमको ध्यान में रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यन्तर व्याप्ति पाई जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया है और उस कालमें जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पाई जाता है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बनकर जिसमें कर्तारूप व्यवहार होता है उसे कर्ता निमित्त कहते हैं।' आदि
हमारे इस कथन के विषय में भागमप्रमाण भी देखिये
यथान्यध्यापकभावेन मृतिकया कलशे क्रियमाणे मान्यभावक्रमाचेन मृत्तिकयेवानुभूयमाने बहिर्व्याप्यध्यापकभावेन कलशसम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कलशभूततोयोपयोगजां तृप्तिं मान्यभावकमानेनानुभनंदन कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूबोस्ति तावद् व्यवहारः, तथान्तप्यष्यापकभावेन पुद्गलद्रयेण कर्मणि क्रियमाणे मान्यभावक मावेन पुद्गल येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापक्रमावेनाज्ञानात्पुद्गल कर्मसम्भवानुकूलं परिणामं कुर्वाणः पुद्गलकर्म विपाकसम्पादित
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