Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 454
________________ ८२४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा ___ यह भो कितनी विचित्र बात है कि आप अन्य वस्तुमें उपादानवस्तुगत कारणताका उपचार इसलिये करना चाहते है कि कोई भी व्यक्ति उपादानवस्तु की कार्यरूप परिणतिम निमित्तभूत वस्तुको वास्तविक सहयोगो कारण न मान ले, परन्तु वास्तविक बात तो यह है कि किलो वस्तुमें किसो वस्तु या उसके धर्मका आरोप तो उस वस्तु के महत्त्य को बढ़ाने के लिये ही किया जाता है, जैसा कि ऊपर 'अन्नं बै प्राणाः' श्रीर "सिंहो माणवकः' इन दो उदाहरणोंमें बतलाया जा चुका है। ऐसी स्थिति में उपादानकी कायरूप परिणति में निमित्तभूत वस्तुको स्वभावतः सिद्ध वास्तविक सह्योगात्मक कारणताको कल्पित, असत्य, निस्यपागडे बनाने के लिए उपादान-वस्तुगत-कारणताका आरोप अन्ध वस्तुमें करना कहाँतक तसम्मत हो सकता है ? तथा इस तरह तर्कसे असंगत उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप कर लेने से पूर्वोक्स प्रमाणों द्वारा आगमप्रसिद्ध उस अम्प वस्तु स्वभावतः वास्तविकरूप में विद्यमान उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायता पहुँचानेरूप कारणाको समाप्त करनेका प्रयास कहाँतक उचित होगा? पुनश्च आपके कथनानुसार उपादानभूत वस्तुमैं जो कर्ता, कम, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप छह कारकोंको प्रवृत्ति पायो जाती है उन छह कारकोंकी प्रवृत्ति उपचारसे निमितभूत वस्तुमें हुआ करती है। इसका प्राशय यह हुआ कि उपादान वस्तुमें पाया जानेवाला कर्तृत्वरूप धर्म कर्ताहमसे निमित्तभूत अन्य वस्तुमें उपचरित हो जाता है। इसी प्रकार उपादानभूत वस्तृमें पाया जानेवाला करणत्वरूप धर्म करणरूपसे निमितभूत अन्य वस्तुमें उपचरित हो जाता है और यही प्रक्रिया संप्रदान, अपादान तथा अभिषण के लिए गोला नोना है। इसी प्रकार कर्म कारकके विषयमें भी यही प्रक्रिया लागू होगी, ऐसी हालतमें उपादानवस्तुगनु कर्मत्वका आरोप आप कौन-सी अन्य वस्तुमें करेंगे? इसपर ध्यान दीजिये, कोकि परस्पर निलक्षण अपने अपने अलग-अलग निमितत्वको धारण करने वालो अन्य वस्तुओं में ही जिस प्रकार कर्तत्व, करणत्व आदिका आरोप होता है उस प्रकार कर्मत्वका आरोग करने के लिये ऐसी कोई भी अन्य वस्तु वहाँ नहीं पायी जाती है, जिसमें उपादाननिष्ठ कर्मत्वका आरोप किया जा सके, कारण कि कर्मनामकी वस्तु तो वहाँपर उगदानका परिणामरूप एक हो है। यह तो सुविदित हो है कि प्रत्येक वस्तु स्वकी अपेशा उपादान भी है और परको अपेक्षा निमित्त मी है। जैसे-मिट्टो घड़ेको उत्पत्ति होने में कुम्हार कस्सेि निमित्त होता है और सूतसे वस्त्रको उत्पत्ति होने में जुलाह। भी कालपसे निमित्त होता है, लेकिन कुम्हार और जुलाहा ये दोनों ही अपने-अपने परिणमनके प्रति स्वयं उपादान भी हैं। इसका मतलब यह हुमा कि घटादि वस्तुओंको उत्पत्तिमें निमितभूत कुम्हार आदि वस्तुओका जो योगोपयोगरूप पापार हुआ करता है वह उन कुम्हार आदि वस्तुओंका अपना ब्यापार है, क्योंकि वह च्यापार उनकी उपादानशक्तिका ही परिगमन है, उस व्यापारको कुम्हार आदि अपने संकल्प, अपनी बुद्धि और अपनी शक्ति के अनुसार घटादिककी उत्पत्तिके अनुकूल किया करते है और तन उनके उस व्यापारके सहयोगरो मिट्री आदि पदार्थोंसे घटादि पर्वायोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। उस व्यापारको तो उपचरित कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि वह कुम्हार आदिको अपनी ही उपादानशक्तिसे प्रश्ट होनेवाला उनका अपना ही व्यापार है, अतः उस व्यापारको तो वास्तविक हो मानना होगा, और चौक उस ध्यापारके पाल रहते हो घटादिका निर्माण कार्य होता है एवं उन कुम्हार आदिके संकल्पादि अथवा अन्य बाह्य साधनों द्वारा उनके उस व्यापारके बन्द हो जानेपर घटादिका निर्माण कार्य भी बन्द हो जाता है, इस तरह चटादि कार्योंका कुम्हार आदिके व्यापार के साथ अन्वय और व्यतिरेक घटित होता है। इस अन्यय और व्यतिरेक विषयमें जब विचार किया जाता है तो यह भी वास्तविक हो सिद्ध होता है, उपचरित

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