Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका २ और उसका समाधान अभिप्रायसे जो यह लिखा है कि 'किन्तु जी कर्मशास्यके विशेषज्ञ हैं वे भलीभांति जानते हैं कि प्रत्येक समममें जो द्रव्यकर्म बंधता है उसमें नाना वर्गमाएँ होती है और सभी वर्गणाआम समान अनुभाग (फलदान शक्ति) नहीं होतो, किन्तु भिन्न-भिन्न वर्गणाओम भिन्न-भिन्न अनुभाग अर्थात किसी वर्गणामें जघन्य, किसी में मध्यम मोर किसी में उत्कृष्ट अनुभाग होता है । मध्यम अनुभागके अनेक भेद है और वर्गणा भी नाना है । इस प्रकार जिस समय जैसा अनुभाग उदयमें जाता है उसके अनुरूप आत्माके परिणाम होते हैं।......"जिस समय मंब अनुभाग उदयमें आता है उस समय मंद पायल्प परिणाम होते हैं और उस रामय ज्ञान व वीयंका क्षयोपशम विशेष होनेमे आत्माकी शक्ति विशेष होती है। उस समय यदि यथार्थ उपदेश आदिका बाा निमित्त मिले और यह जीव तत्त्वविचारादिका पुरुषार्थ करे तो सम्यक्त्व हो सकता है ।' आदि । वह युक्तियुक्त नहीं ठहरता, क्योंकि इसमें भी तीव्र-मन्द भावसे परस्पराश्रयता बनी रहने के कारण न तो बाहमा कर्मोदयके विरुद्ध पुरुषार्थ कर सकता है न हो ज्ञानका उदय हो सकता है और न ही उपदेश आदिका बाह्य निमित्त मिल सकता है, क्योंकि कर्मोदयमात्र मोक्षमार्गका प्रतिबन्धक है, अत: 'कमदिय बलात् राग-द्वेषको उत्पन्न करते हैं और राग-द्वेष बलात् वर्मका बन्ध कराते हैं' इम सिद्धान्तके स्वीकार करने पर माक्षमागका पुरुषाय कभी नहीं बन सकेगा यह जो आपत्ति हमने दी है वह उचित ही है।
यदि अपर पमने 'प्रेय ते कर्म जीनेन' इत्यादि बचन कदाचिरक नियमके रूपमें उपस्थित किया है तो हमसे अपर पक्षक इस सिद्धान्तका खण्डन हो जाता है कि 'कम जाव में बलात राग-दूपादिको उत्पन्न करता है।
अतः प्रकृतमें यह सव कथन व्यवहारनयका वक्तव्य ही समझना चाहिए। ब्रह्मदेव सुरिने बृहद्रव्यसंग्रह गा० ३७ में जो कुछ लिखा है, वह ठीक ही लिखा है। उन्होंने एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में बलात कार्य करता है इस सिद्धान्तको स्वीकार करके वह वचन नहीं लिखा है, अतएव उनका वैमा लिखना उचित ही है। उनके लिखनेका आशय ही इतना है कि यदि यह जीव कर्मोदय और इसके फलमें उपयुषत न हो तो वह संसारपरिपाटीसे मुक्त हो सकता है।
अपर पसने इष्टापदेश गाथा ३१की टीकासे 'काय नि बलिओ कम्मो' यह वचन उद्धृत किया है। किन्तु इसका भी आशय इतना ही है कि जब तक यह जीव उदयाधीन होकर परिणमता है तब तक कर्मकी बलवत्ता कही जाती है 1 कौने उदयाधीन किया नहीं। वह स्वयं उसके आधीन हुआ है। किन्तु जब यह जीव कर्मोदय में तन्मय न होकर अपने स्वभावके सन्मुख होता है तब मात्माकी बलवत्ता कही जाती है । इष्टोपदेश गा० ३१ को समन टीका पर दृष्टिपात करनेस यही भाव व्यक्त होता है।
अपर पक्षने लिखा है कि 'नेयमाणाः पुद्गलाः का जो वाच्य अर्थ है वह हो जिनागममें इष्ट है, क्योंकि शब्दोंका मौर का परस्पर वाच्य-वाचक सम्बन्ध है। किन्तु प्रश्न तो यही है कि प्रेयमाणा' पदका वाच्यार्थ क्या है ? इस तो स्पष्ट किया नहीं और लम्बी-चौड़ी टीका कर डाली। इसीका नाम तो चतुराई है। जिनागममें तो इसका यह अर्थ है कि राग मेषसे मल मम आत्माके योग और विकल्पको निमित्तकर जो पुदगल शब्दरूप परिणमत हैवप्रयमाण पुद्गल कहलाते हैं। अच्छी बात है यदि अपर पक्ष इस वाच्यको स्वीकार कर लेता है और अन्य ट्रम्प अन्य द्रव्यमें बलात कार्य कर देता है इत्यादि प्रकारको गलत मान्यताको त्याग देता है। ऐसी अवस्था में उसके द्वारा आगमका अर्थ करने में जो अनर्थ हो रहा है उसका सूतगं न्याय हो जायगा ।