Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचा उठाया कि इस गाथामें शुभ-अशुभ कर्मके साथ संसर्ग करने तथा उनके साथ राग करनेका निषेत्र ग्रन्थकारने किया है। आत्माके पुण्य-शुभ परिणामोंको त्यागनेका उल्लेख इस गाथामें किसी भी शब्दसे प्रगट नहीं किया गया । अतः आपका यह प्रमाण प्रकृतमें आपके अभिप्रायका पोषक नहीं है।
टीकाकारको निम्नलिखित दीका दर्शनीय हैकुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसगों प्रतिषिद्धी बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेगुकुट्टनी
संसगंवत् ।
अर्थ-कुशोलरूप शुभ-अशुभ कर्मों के साथ राग ( मानसिक भाव ) और संसर्ग ( वाचनिक तथा शारीरिक प्रवृत्ति ) प्रतिषिद्ध है, क्योंकि शुभाशुभ कर्म के साथ राग और संसर्ग बन्धका कारण ई, जैसे मनोज अमनोज्ञ कृत्रिम हथिनीके साथ वनिवासी स्वतन्त्र हाथोको (परतन्त्र बनाने के कारण ) राम और संसर्ग करना निषिद्ध है।
हमारा प्रश्न पुण्य आचरणके विषय में था। तदनुसार आपको पण्य आचरण त्याज्य प्रमाणित करने वाला ही शास्त्रीय प्रमाण देना चाहिये । हमने शुभ कर्म की उपयोगिताका समर्थन करनेवाला प्रश्न नहीं किया, अपि तु शुभाशुभ कर्मध्वंग करनेवाले तपोमय एवं परम्परासे मुक्तिके कारणभूत पुण्य आचरणके विषयमें हो हमारा प्रश्न है । अतः आप पुण्य-पाप द्रव्यकर्मकी बात छोड़कर पुण्यभाव-भोपयोगरूप व्यवहार सम्यक चारित्र पर शास्त्रीय प्रमाण सहित प्रकाश डालिये।
इस प्रकार आपने अपने पक्षको पुष्टिमें जो तीन बातें कहीं है, उन पर पर्याप्त प्रकाश डालकर, अब कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्धोंके पठनीय, माननीय एवं आचरणीय प्रमाण उपस्थित करते हैं। ये प्रमाण आपकी मान्यता को बदलने में आपके लिए अच्छे सहायक होंग। श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार अ० ३ में लिखते है :
असुमोपयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा
णिरधारगति लोग तेसु पसरथं लहदि भत्ती ॥ २६ ॥ अर्थ-अशुभ उपयोगसे रहित शुद्धोपयोगी अथवा शुभोपयोगो मुनि जनताको संसारसागरसे पार कर देते है, उन मुनियोंका भक्त प्रयास्त सुख या प्रशस्त पद प्राप्त कर लेता है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि इस गाथाको टीका करते हर लिखते है
यथोक्कलक्षणा एवं श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्तरागीच्छेदादशुभोपयोगवियुक्ताः अन्तःसकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुखोपयोगयुक्ताः प्रशस्तरागविषाकाकदाचिच्छुभोपयोगयुक्ताः स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तभा: भवन्ति परे च पुण्यभाजः ।
अर्थ-पूर्वोक्त लक्षणवाले मुनि मोह, द्वेष और दूषित रागरूप अशुभ उपयोगसे रहित, समस्त कषायों से रहित होने के कारण कदाचित् शुद्धोपयोगी और प्रशस्त रागके उदयसे कदाचित् शुभोपयोगो मुनि स्वयं मोक्षायतन ( मोमस्थान ) रूप होनेसे जगतको तारते रहते हैं । जो व्यक्ति उनकी भक्ति करते हैं वे भो शुभपरिणामी बनकर पुण्यात्मा हो जाते हैं। इसी ग्रन्थका एक अन्य प्रमाण देखिये
एसा पसत्यभूदा समणाणं वा पुण घरस्थाणं । चरिया परति भणिदा ता एष परं लहदि सोक्षं ॥३-२५४॥