Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 372
________________ ७४२ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा सत्य, प्रामाणिक एवं मान्य ही है। आश्चर्य एवं महान् वेदको बात है कि श्री समयसारके अतिरिक्त महान् ऋषि प्रणीत आर्ययम्योंके प्रमाणोंकी उपर्युक्त वाक्य कहकर अबहेलना को जाती है और उनको अप्रामाणिक तथा अमान्य समझकर उनका उत्तर देने की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती है। किन्तु शंका या प्रतिकाका उत्तर देते हुए जहाँ अनुकूल समझा जाता है वहाँ इन्हीं व्यवहार अति प्रयोंका प्रमाण भी दे दिया जाता है। यह ही नहीं, बल्कि सर्व श्री विद्यानन्य, अकलंकदेव आदि महान् आचायोंके प्रमाणोंकी अपेक्षा गृहस्योंके द्वारा रचित भाषा भनगोंको अधिक प्रामाधिक माना जाता है और उन भजनोंका प्रमाण देकर परम पूज्य महान् आचायोंके आग्रन्थों का निराकरण (खण्डन ) किया जाता है तथा उनके आधार पर सिद्धान्तका निर्माण किया जाता है। कैसी विचित्र परिस्थिति है ? क्या इस ही का नाम वीतराग चर्चा है ? उचित तो यही होता कि चर्चा के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया जाता कि मात्र श्री समयसारके निश्च याश्रित प्रकरण ही मान्य हो अन्य समस्त ग्रन्थ व्यवहारात होने मान्य न होंगे। किन्तु उपर्युक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि सभी शास्त्रों में प्रमाण तथा नयाँ द्वारा वस्तुस्वरूपका ही प्रतिपादन किया गया है | अतः सब ही आर्यग्रन्थ प्रामाणिक एवं मान्य है | घव पु० १३५० ३६ पर घव प्रत्थोंको शास्त्र कहा है और विशेषार्थ में श्री फूल भी इस पवन अन्यको अध्यात्मशास्त्र स्वीकार करते हुए किया है कि 'अध्यात्म शास्त्रका अर्थ है आत्माको विविध अवस्थाओं और उनके मुख्य निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र ' सभी आर्यम्यों भगवान्को रामोसे आया हुआ द्रव्यगुण-स्वभावका कथन है। इसीको श्री अमृतचन्द्र सूरिने इन शब्दों द्वारा कहा है सर्वपदार्थाभ्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयीन पुनरितरा --प्रवचनसार गाथा १३ की टीका - अर्थ — यही सर्व पदार्थों के ( जीव, गुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्योंके स्य गुण और पर्यायोंके स्वभाव (स्वरूप) का प्रकाशन करनेवाली सर्व भगवान्‌के द्वारा बतलाई दुई व्यवस्था समीचीन सिद्ध होती है और एकान्त नियतिवाद आदिका पोषण करनेवाली दूसरी व्यवस्था समीचीन सिद्ध नहीं हो सकती । श्री समयसार गाथा १५३ को श्री अमृतचन्द्र सूरिकृत टीकाको उदवृत करते हुए यह अभिप्राय सिद्ध करने को चेष्टा की गई है कि कदाचित् व्रत, नियम, शो, तब विना भी मात्र ज्ञानसे मोक्ष हो सकती है। उक्त टोकानें शब्द 'अहि' पद दे दिया जाता तो सम्भवतः यह भ्रम न होता टोकाकारका आशय यह दिखलानेका है कि निर्विकल्प समाधिमें स्थित ज्ञानी बाह्य प्रवृत्तिरूप व्रत नियम आदि न पालन करते हुए भी अंतरंग निवृत्तिरूप पारण करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता हूँ श्री जयसेन आचार्यने भी यही आशय अपनी टीका स्पष्ट किया है: 1 निर्विकल्प त्रिगुतिसमाधिलक्षणभेदज्ञानसहितानां मोक्षो भवतीति विशेषेण बहुधा भणितं तिष्ठति । एवंभूतभेदज्ञानकाले शुभरूपा ये मनोवचनकायव्यापारा: परंपरया मुक्तिकारणभूतास्तेपि न संति । अर्थ - निविकल्प तथा त्रिगुप्तिरूप समाधि है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान सहिवालांके मोक्ष होती है— ऐसा विशेषरूपसे कहा गया है। इस प्रकार के ज्ञान के समय शुभ जो मन-वचन-कामका पार है, जो परम्परासे मुक्ति के कारणभूत हैं वे भी नहीं होते हैं ।

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