Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) सत्त्वचर्चा
जीव सभी कालों में पुलके मध्य रहता हुआ भी पौद्गतिक क्रमोंको न तो ग्रहण करता है, न त्यागता है और न करता है ॥१८५॥
अपर पक्षका कहना है कि जो एक नया विषय है वही विषय दूसरे नयका नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो जाए तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। दोनोंमें अन्तर नहीं रहने नयाँका विभाजन पर्थ हो जायेगा तथा सुव्यवस्था नहीं रहेगी सर्व विप्लव हो जायगा जो व्यवहारनयका विषय है उसका कथन व्यवहारयसे हो हो सकता है, निश्वयायसे वह कथन नहीं हो सकता । अतः आर्यप्रमाणों को यह कह कर टाल देना कि 'विवक्षित कथन व्यवहारनपसे है निश्चयसे नहीं' आगम संगत नहीं है।'
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सो इस सम्बन्धमें हमारा भी यही कहना है कि जो असद्मतम्यहानयका fare है वहीं सद्भूतव्यवहारनयका नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो जाय तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर हो नहीं रहेगा। दोनोंमें अन्तर नहीं रहने से नोंक विभाजन व्यर्थ हो जायगा तथा दोनोंके कथनको एक मानने से व्रभ्यभेदको प्रतीति नहीं होगी द्रव्यमेवकी प्रतीति नहीं हो सकने से पृथक्-पृथक् द्रव्योंकी बता नहीं सिद्ध होगी, सर्व विप्लब हो भूविषय है उसे उपरि मानना ही युक्त है। उसे सद्भूतरूपले प्रसिद्ध करना आगमसंगत नहीं है । हमने अपने उत्तरोंमे आईप्रमाणोंको कहीं भो टालनेका प्रयत्न नहीं किया हो, आगमले जो अद्भुत व्यवहारनयका तय है उसे अवश्य ही उसी रूपमें प्रतिद्ध किया है।
अण्णा
अपर पक्ष ने प्रस्तुत प्रसिका को जिस प्रवीणता उपस्थित करनेका प्रयत्न किया है उसे हम अच्छी तरह से समझ रहे हैं। पहले तो उस पक्ष ने प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध कर सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य मादिरूपसे दो दो धर्मयुगलों की स्थापना की। इसके बाद सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले द्रव्याधिक और पर्यायाथिक इन दो नयोकी स्थापना कर उनको निश्चवनय और व्यवहारनय वह संज्ञा रखो और इस प्रकार व्यवहारनायके उत्तर भेदोंका नाम लिये बिना और सद्व्यवहारनयके विषय में असद्भूतव्यवहारलय के विषयको मिलाकर प्रस्तुत प्रतिकांचा खड़ा किया किन्तु हमारे विचारले विचारको यह पद्धति नहीं है। क्या इस प्रकार एक द्रव पयको उसीकी प्रसिद्ध करनेवाले पचिहान बदलाकर अद्भूत व्यवहारय विषयको सद्भूत सिद्ध किया जा सकता है, कभी नहीं स्पष्ट है कि जब कि अद्भूत व्यहारनयका विषय उपचरित है तो वह उपचरित ही रहेगा। आगमले उसे सद्भूत सिद्ध करना ठीक नहीं हूँ ।
इस प्रकार बन्य मोक्ष क्या है इसका नयदृष्टिसे स्पष्टीकरण किया।
७. एकान्तका भामह ठीक नहीं
अभी हमने आगम में किये गये व्यवहार के उत्तर भेदों और उनके ध्यान बन्ध मोक्ष के विषय में स्पष्टीकरण किया। किन्तु अध्यात्म आगममें इस विषयपर और भी सूक्ष्मता विचार किया गया है। उसमें बतलाया है कि आत्माको जो पर्याय परके लक्ष्य (रागभावसे पर उपयुक्त होने या परका सम्पर्क करनेसे उत्पन्न होती है वह जिसके लक्ष्यसे उत्पन्न होती है उसीकी है। यही कारण है कि अध्यात्म आगममे जिनदेवने बध्यवसान बादि भावों को जो जीव कहा है उसे अभूतार्थव्यवहारका कथन जानना चाहिए। इस पर प्रश्न होता है कि इन अध्यवसान जादि भावांका जीव कहना यह जब कि अभूतार्थव्यवहार हूँ तो फिर जिनदेवने ऐसे व्यवहारका बायन ही क्यों किया ? यह प्रश्न है इसीका समाधान करते हुए आचार्यने समयसार गाथा ४६ को टीकामे 'व्यवहारो हि व्यवदारिणां इत्यादि वचन लिखा है। इससे यह