Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
८१६
जयपुर (खानिया ) तस्वषर्चा
व्यवहार शब्द वास्तव में निश्चयशब्द सापेक्ष होकर ही अपने अर्थका प्रतिपादन करता है । प्रत्येक बस्तु में यथासम्भव अनेक प्रकारके निश्चय और व्यवहाररूप धोके विकल्न पाये जाते हैं। जैसे-द्रव्य और पर्यायके विकल्पोंमें द्रव्यरूपता निश्चय और पर्यायरूपता ब्यबहार है, गण और पर्याय के विकल्पों में गुणरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता व्यवहार है, सवतित्व और क्रमपतित्व के विकल्पोंमें सहतित्व निश्चय है और क्रमवतित्व व्यवहार है, अन्वय और व्यतिरेकके विकल्पों में अन्वयरूपता निश्चय है और व्वतिरेकरूपता ब्यवहार है, योगपद्य और क्रमके विकल्पोंमें योगपद्य निश्यय है और क्रमरूपता व्यवहार है, निर्विकल्प और सविकल्पके विकल्पों में निर्विकल्पकता निश्चय है और सविकल्पकला व्यवहार है. अवक्तव्य और वक्तव्यके विकल्पों में अश्वतध्यता निश्चय है और वक्तव्यता व्यवहार है, वास्तविक और कल्पितके विकल्पों में वास्तविकला निश्चय है और कल्पितरूपता व्यवहार है, अनुपचारित और उपचरितके विकल्पों में अनुचस्तिता निश्चय है और उपचरितता वयवहार है, कार्य और कारण, साव्य और साधन तथा उद्देश्य और विधेयके विकल्पोंमें कार्यरूपता, साध्यरूपता ओर उद्देश्यरूपता निश्चय है तथा कारणरूपता, सायनरूपता और विधेयरूपता व्यबहार है, उपादान और निमित्तके विकल्पोंमें उपादानहाता निश्चय है और निमित्तरूपता व्यवहार है, अन्तरंग और बहिरंगके विकल्पोम अन्तरंगरूपता निश्चय है और बहिरंगरूपता व्यवहार है, व्यलिंग और भात्रलिंगके विकल्पों में भाव निश्चम है औरण्य व्यवहार है,लब्धि और उपयोग तथा शक्ति और वयक्तिके विकल्मोंम लब्धिरूपता और शक्तिरूपता निश्चय है तथा उपयोगरूपता और व्यक्तिमता व्यवहार है, स्वाधित और पराधितके विकल्पों में स्वाथितता निश्चय है और पराश्रितता ध्यपहार है, स्वभाव और विभावके विकल्पों में स्वभाव निश्चय है, और विभाव व्यवहार है अवद्धता और बद्धताके विकल्पों में अबद्धता निश्चय है और बद्धता व्यवहार है, मुक्ति और संसारके विकल्पोंमें मक्ति निश्चय है और संसार व्यवहार है।
इन प्रकार प्रत्येक वस्तुमै यथासम्भव विद्यमान अपने-अपने अनन्त धोको अपेक्षा परस्पर विरुद्धअनन्त-प्रकारके निश्चय और व्यवहारके युगलरूप विकल्प पाये जाते हैं। जैन संस्कृतिमें वस्तुको अनेकाकात्मक स्वीकार किया गया है, इसलिये उपयुक्त निश्चय और व्यवहारके विकल्प परस्पर विरोधी होते हुए भी वस्तुम परस्पर समन्वित होकर हो रह रहे है। एकरव और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, तपता और अतद्रूपता, सद्रूपता और असदुरूपता, अभेदरूपता और भेदरूपता इत्यादि युगलोंमें भी पहला विकल्प निश्चयका और दूसरा विकल्प व्यवहारका है। चूंकि ये सभी वस्तुके ही धर्म है, अतः अपने-अपने रूपमें सद्भुत हैं, केवल असद्भूत नहीं हैं।
आपने उपचारका यह जो लक्षण लिखा है कि 'मल वस्तुके वैसा न होनेपर भी प्रयोजनादिवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करनेको उपचार कहते हैं । इसमें पठित प्रयोजनादि शब्दके 'आदि' शब्दसे निमित्त (कारण )का अर्थ आपको प्राहय है तो यह ठीक है । परन्तु यह बात हम अपनी प्रतिशंका में पहले हो लिख चुके हैं कि उपचारके इस अर्थ में हमारे आपके मध्य अन्तर यह है कि 'जहाँ आप उपचारकी प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलाने के लिये करना चाहते हैं वहाँ हमारा कहना यह है कि उपचार करनेका कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्य में हो और उपचार प्रवृत्तिका कोई निमित्त ( कारण ) वहाँ विद्यमान हो तो उपचारकी प्रवृत्ति होगी।'
हमने अपनी प्रतिशंका में यह लिखा था कि 'अपने नयचक्रकी 'बन्धे च मोक्ख हेक' इस गाथाका अर्थ गलत किया है, तो इसपर आपने प्रत्युत्तर में लिखा है कि 'यह आपत्ति व्यर्थको उठाई गयी है। और फिर आगे वहीं पर उभय पक्षके अर्थोकी तुलना करते हुए आपने हमारे और आपके कानों अर्थों में समानता दिखलाने