Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १७ और उसका समाधान
हम जरणका बोचका अंश इसलिए छोड़ दिया गया है कि वह यहांके लिये भी प्रश्न नं १ को तृतीय प्रतिशंका में इसका सम्पूर्ण भाग दिया गया है, अत: यहां इसका अर्थ निम्न प्रकार है-
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अनावश्यक है, फिर देखा जा सकता है ।
सहकारी कारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव किस तरह बनता है ? क्योंकि वहीं पर कार्य और कारणमें एक द्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव है। ऐसी शंका यहाँ पर नहीं करना चाहिये, क्योंकि सहकारी कारण के साथ कार्यका कार्यकारणभाव कालप्रत्यासत्तिकं रूपमें पाया जाता है । ऐसा देखा जाता है कि जिसके अवन्तर जो अवश्य हो होता है वह उसका सहकारी कारण होता है, उससे अन्य कार्य होता है !....इस तरह व्यवहार के आश्रयसे दो पदार्थोंमें विद्यमान कार्यकारणभावरूप सम्बन्ध संयोग, समवाय आदि सम्बन्धाकी तरह प्रतीतिसिद्ध हो है, अतः वह परमार्थिक ही हैं, उसे कल्पनारोपित नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वह सर्वथा अनवद्य है ।
इसी प्रकार तवार्थवार्तिक के प्रमाण भी देखिये --
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स्व-परप्रत्ययोत्पादविगमपर्यायः द्यन्ते द्रवन्ति वा द्रव्याणि ॥ १॥ स्वश्च परश्च स्वपरी, स्वपरौ प्रत्यययोः ती स्वपरप्रत्ययौ । उत्पादन विगमश्चोत्पादविगमौ । स्वपरप्रत्ययौ उत्पादविगमौ येषां स्वपरप्रत्ययोपादविगमाः । के पुनस्ते ? पर्यायाः । द्रव्य क्षेत्रकालभावलक्षणो बाधः प्रत्ययः । तस्मिन् सत्यपि स्वय मतपरिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दताति । तत्समयः स्त्रश्य प्रत्ययः । तावुभौ संभूय भाषानामुत्पादविगमयोः हेतु भवतः, नान्यतरापाये, कुशूलस्थमास पच्यमानोदकस्थ घोटकमाषवत् । एवमुभयहेतुकोत्पादविगमैः तैस्तैः स्वपर्यायैः दूयन्ते गन्यचे द्रषन्ति मच्छन्ति तान् पर्यायानिति द्रव्याणीति व्यपदिश्यन्ते । -- अध्याय ५ सूत्र २ की व्याख्या
भावार्थ- द्रव्य उत्पादव्ययरूप पर्यायोंसे विशिष्ट होता है और के उत्पाद व्ययरूप पर्यायें स्वपरप्राय अर्थात् एव और परकै कारणसे ही हुआ करती हैं। इन स्व और पररूप कारणोंमें द्रव्य क्षेत्र, काल विवक्षित और भावरूप तो बाह्य प्रत्यय ( कारण ) है । इनके विद्यमान रहते हुए भी यदि स्वयं वस्तु पर्यायरूपसे परिणमन करने में समर्थ नहीं है तो वह वस्तु पर्यायान्तरको प्राप्त नहीं होती है। उसमें समर्थ उस वस्तुकी अपनी योग्यता है। यह योग्यता उस वस्तुका स्वरूप प्रत्यय ( कारण ) है । इस प्रकार पर और
स्त्र दोनों मिलकर पदार्थोंक उत्पाद और विगम के हेतु होते हैं। कारण कि उन दोनोंमेंसे
एकके भी अभाव में
वस्तु उत्पाद और aियम ( विनास ) हो नहीं सकते है। योग्यता रखते हुए भी बाह्य कारणभूत उबलते हुए पानी के डले हुए stee ( पकनेको योग्यता से रहित ) उड़द पकने की
जैसे कोठो ( टंकी ) में रखे हुए उड़द पकनेकी बिना पकते नहीं हैं और उबलते पानी में योग्यता बिना पकते नहीं हैं ।
हुए
इस व्याया में 'संजय' और 'नान्यतरापाये' पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं, जो बतला रहे हैं कि परप्रत्यय अर्थात् ब्राह्मरूप निमित्त ( सहकारी ) कारण तथा स्वप्रत्यय अर्थात् अन्त रंगरूप उपादान कारण दोनों एक साथ प्रयुक्त होनेसे ही कार्य निष्पन्न होता है, किसी एकके अभाव में नहीं होता ।
तत्वार्थवातिकका दूसरा प्रमाण भी देखिये – कार्यस्थानेकोपकरणसाध्यत्वात् तसिः ||३१|| सो कार्यमनेकोपकरणसाध्यं ष्टम्, यथा पिण्डो घटकार्य परिणामप्राप्ति प्रति गृहांताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलाल-दण्डच कसूत्रोदककालाकाशाखिने
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