Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १७ और उसका समाधान
ये सब प्रमाण स्पष्टरूपसे बाह्य वस्तुभूत निमित्तकारणोंमें भी वास्तविक कारणताकी घोषणा
करते हैं।
इन सब प्रमाणों के विरुद्ध आपने अपने वक्तव्य में आगे लिखा है---
'आगम as निमिसको व्यवहार कारमा किया गया और व्यवहारका अर्थ उपचार है ।'
इसका मतलब यह हुआ कि आप निमित्त कारणताका उपचार करना चाहते हैं, लेकिन यहाँ विचारना यह है कि निर्मित शब्दका अर्थ हो जब कारण होता है तो निमित्त में विद्यमान कारणवास अतिरिक्त और कौन सो कारपताका उपचार आन निभित करना चाहते हैं? तथा उसमें (निमित्त में) कारणता विद्यमान रहते हुए उस उपचरित कारणताका प्रयोजन हो क्या रह जाता है ?
यद्यपि आगे आपने स्वयं लिखा है कि 'उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप विश्वकी सिद्धिके लिये हो किया जाता है और इसीलिये उसे निमित्तकारण कहा जाता है और इसीलिये उसमें कर्ता आदिका व्यवहार करते हैं।
तो इसका आशय भी यह हुआ कि कारयताका उपचार आपके उसे फिर निमित्त नहीं होता है, बल्कि उन अन्य वस्तु होता है, जो वस्तुएँ उपादान वस्तुगत कारणका बारोप हो जानेपर निर्मित कारण कहलाने लगती है लेकिन ऐसी हालत ने आपका यह लिखना गलत ठहर जायगा कि 'आगन में सर्वत्र निमित्तको व्यवहारसे कारण स्वीकार किया गया हैं और व्यवहारका अर्थ उपचार है।' दोंकि जब आप उपयुक्त प्रकारको अन्य वस्तु कारणताका उपचार करनेको बात स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर आपके मसे निमित्त व्यवहारसे कारण नहीं रह जाता है कि उस वस्तुको हो व्यवहारसे कारण स्वीकार करने की मान्यता उपचार किया जाता है। इस सरह स्वयं गाथामें पठित 'अण्णो' पदका आपके द्वारा पहले हो बतला चुके हैं कि 'अण्णा' पदका निर्मित व्यवहारसे याने उपचारसे कारण
आपके मत में प्राप्त हो जाती है जिसमें उपदान-गत कारणताका आपके इस कथा के आधार भी बंधे च मोक्ख हेऊ....' इस किया गया निमितरूप अर्थ गलत सिद्ध हो जाता है, क्योंकि हम निमित अर्थ करके आपने 'अण्णो ववहारदी हेऊ' इसका अर्थ होता है' यही तो किया है।
दूसरी बाह्य यह है कि प्रत्येक वस्तुमें समान रूपसे एक साथ पाये जानेवाले उपादानता और निमित्तता नामके दोनों हो धर्म कार्यसापेक्ष होते हुए भी वास्तविक ही है, इसलिये मां निमितको व्यवहार (उपचार) से कारण कहना असंगत हो है ।
यदि आप उक्त असंगतताको समाप्त करनेके लिये निमित व्यवहारसे कारण है इसके स्थानपर निमितभूत ऋतु व्यवहारसे कारण है' ऐसा कहने को तैयार हों, तो भी आप पूर्वोक्त इस आपत्ति नहीं बच सकते हैं कि जिस निमित्तभूत वस्तुएँ आप कारण का उपचार करना चाहते हैं, उसमें जब स्वयं कारणता विद्यमान है तो ऐसी हालत में एक कारण विद्यमान रहते हुए उसमें दूसरी कारणा उपचारका प्रयोजन ही गया रह जाता है? मालूम पड़ता है कि इन्हीं सब अपत्तियों से ही आप में इस निकर पहुंचे है कि 'उपादानवस्तुगत कारणताका शेष अन्य उस वस्तु हो करना उचित है जो वस्तु उपादानवस्तुगत कारणताका आरोप हो जानेपर निमित्तकारण कहलाने लगती है, जैसा कि आपके उपर्युक्त