Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
कोपकरणापेक्षः पविणार्विभवति नैक एवं मृत्पिण्डः कुलाष्ठादिपाद्यसाधनसभिघातेन विना घटात्मना विर्मावित समर्थः तथा पतत्रिप्रभृतिभ्यं गतिस्थितिपरिणामप्राप्तिं प्रत्यमिमुखं नान्तरेण ब्राह्मानेककारणसन्निधिं गतिंस्थितिं चावातुमलमिति तदुपद्मकारणधर्माधर्मास्तिकायसिविः ।
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- अध्याय ५ सूत्र १७ की व्याख्या भावार्थ - यहाँ पर धर्म और अधर्म द्रव्योंका अस्तित्व सिद्ध किया जा रहा है। इनकी सिद्धिके लिये हेतु बतलाया है कि कार्यको सिद्धि ( निव्यत्ति ) अनेक कारणोंसे हुआ करती है। लोकमें भी अपनी घटपर्याय प्राप्तिको अन्तरंग योग्यता रखनेवाला मिट्टीका गण्ड अपनी घट पर्याय निर्माण में बाह्य कारणभूत कुलाल, चक्र, सूत, जल, काल, आकाश आदि अनेक वस्तुको अपेक्षा रखता हूँ। अकेला मिट्टीका पिण्ड कुम्हार आदि बाह्य कारणों के सहयोग के बिना कभी आदि पदार्थ गति अथवा स्थितिरूप परिणतिके सन्मुख होते हुए भी सानिध्य (सहयोग) के बिना गति अथवा स्थितिको प्राप्त नहीं हो सकते हैं, इसलिये उनको सहायता पहुँचाने में कारणभूत धर्म और अधर्म द्रव्योंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है ।
यह कभी नहीं हो सकता, कि घट बनता है। इसी प्रकार पक्षी यथायोग्य बाह्य अनेक कारणों के
एक प्रमाण प्रचचनसारकी आरमस्याति टीकाका भो देखिये -
यथा कुलालदण्डचक्रचीवरारोप्यमाण संस्कार सन्निधौ य एवं वर्धमानस्य जन्मक्षणः, स एव पिण्डस्य नाशक्षण:, स एव च कोटियाधिरूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणा । तथा अन्तरंगचहिरंगसाधना रोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एवोसरपर्यायस्य जन्मक्षणः स एव प्राक्तन पर्यायस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः ।
-गाथा १२ १०, १०२
अर्थ - जिस प्रकार कुम्हार, दण्ड, चक्र, चीवरकी सहायतासे जो घटक उत्पत्तिका क्षण है, वही मिट्टी के पिण्डका विनाशक्षण है और वहां उत्पत्ति तथा विनाशरूप उभय कोटियों में व्याप्ल मिट्टी सामान्यका स्वितिक्षण है। इसी प्रकार अन्तरंग ( उपादान) और बहिरंग ( निमित्त ) रूप साधनों के योगसे जो द्रव्यको उत्तरपर्यायका उसतिक्षण है, वहीं पूर्व पर्यायका नाशक्षण है और वही उत्पत्ति तथा विनाशरूप उभयकोटियों में व्याप्त द्रव्यसामान्यका स्थितिक्षण है ।
यहाँ पर कार्योत्पत्ति स्व और पर वस्तुओं की संयुक्त हेतुताको स्पष्टरूपसे स्वयं अमृतचन्द्राचार्यने स्वीकार किया है।
परीक्षामुख और उसको ढोका प्रमेय रत्नमालाका प्रमाण भी देखिये -
तदृष्यापाराधितं हि तद्द्भावभावित्वम् ।
—सूत्र ६३ समुद्देश ३ टीका - हि शब्दो यस्मादर्थे । यस्मात् तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भावित्वं तद्भावभावित्वं त तद्व्यापाराश्रितं । सस्माश्न प्रकृतयोः कार्यकारणभाव इत्यर्थः । अयमर्थः - अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्य प्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षावेवोपपद्येते कुलालस्येव कलशं प्रति ।
इसके द्वारा अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर बाह्य वस्तुओंकी भी उपादानगत कार्यके प्रति कारणता प्रदर्शित की गयी है और इसके लिये घटरूप कार्यके प्रति कुलालका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है।