Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 448
________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा निमिन भी होती है इसी प्रकार जो वस्तु दूसरी वस्तुमें होनेवाले कार्य के प्रति सहायकपके आधारपर निमित्त होती है वही वस्तु अपने में होनेवाले कार्यके प्रति आषयपने के आधार पर उपादान भी होती है। इस तरह जिस प्रकार वस्तु में पायी जानेवालो उपादानता बस्तुका धर्म है उसी प्रकार वस्तमें पायी जानेबाली निमित्तता भी वस्तुका धर्म ही सिद्ध होता है, इसलिये जिन प्रकार वस्तु में पायी जानेवालो उपादानता वस्तु-धर्म होने के कारण वास्तविक है उसी प्रकार वस्तु में पायी जानेवाली निमित्तता भी वस्तुधर्म होने के कारण वास्तविक ही सिद्ध होता है। आपने स्वयं पहले उत्तरमै यह स्वीकार किया है कि जिस प्रकार निश्चयकारक छ: प्रकारके हैं उसी प्रकार व्यवहारकारक भी छः प्रकारके है-कतई, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण । आगे आपने यह भी लिखा है कि जिस प्रकार कार्यको निश्चय कारकोंके साथ आम्यन्तर घ्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकूल दूसरे एक मा एकसे अधिक पदार्थो कार्यको बाह्य व्याप्ति नियमसे उपलब्ध होतो है।' बागे आपने लिखा है कि 'एकमात्र वस्तु स्वभावके इस अटल नियमको ध्यानमें रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यंतर व्याप्ति पायी जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया है और उस कालमें जिस दूसरे पदार्थके साथ बाह्य व्यति पायी जाती हैं उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बन कर जिसमें कारूप व्यवहार होता है उसे कर्तानिमित्त कहते हैं और जिसमें कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण कारकका व्यवहार होता है उसे कमंनिमित, करणनिमित्त आदि कहते है। आपने अपने इस कथनमें जो यह लिखा है कि जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पायी जाती है उसमें निमित्ताप व्यवहारका थममकर जिसमें प्रारू: व्या होता है उसका निमित्त कहते है आदि', इसमें 'निमित्तरूप व्यबहारका अवलम्बनकर' इस वाक्यांशका अर्थ 'उस दूसरे पदार्थ में उपादानकी कार्यरूप परिणति के अनुकूल जो सहायतारूप ध्यापार हक्षा करता है जिसके आधार उसमें बहिव्याप्तिकी व्यवस्था बन सकती है। यदि आपका अभीष्ट अर्थ हो, तो वह व्यापार उस दूसरे पदार्थका वास्तविक व्यापार ही तो माना जायगा । उसे अयास्तविक कैसे कहा जा सकता है ? यदि उस व्यापारको आप अवास्तविक कहना चाहते है तो फिर उसके आधार पर आप उस दूसरे पदार्थ के साथ आगमसम्मत वास्तविक बहिर्व्याप्तिको स्थापना कैसे करेंगे? यदि इस आपत्तिको टालने के लिए आप उस बहिाप्तिको भो केवल कल्पनारोपित कहने को तैयार होते है, तो यह महान् आवश्यकी बात होगी, क्योंकि आपने स्वयं ही अन्त याप्तिके समान वहिव्याप्तिकी वास्तविकताको पृष्ट करने के लिए समयसार गाथा ८४ को टीकाको अपने उत्तर में उपस्थित किया है, अत: आपको ऐसो कल्लना आगमविरुद्ध होयो । आगे आपने हमारे द्वारा प्रतिशंका २ में कही गयी निमित्त कारणताको वास्तविकताके विषय में यह लिखा है कि इसमें कोई स्पष्टीकरण तथा आयमप्रमाण न होनेसे विचार नहीं किया जा सकता है।' सो स्पष्टीकरण तो हमने पहले भी किया था और अभी भी कर दिया, साथ ही आगमप्रमाण भी उपस्थित ___ सहकारिकारगेन कार्यस्य कथं तत् ( कार्यकारणथम् ) स्याईकनव्यप्रत्यासत्तेरभात्रादिति चेत् कालप्रत्याससिविशेषात् तसिन्द्रिः। यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत कार्यमिति प्रतीतम् ।....तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः संबन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोषितः सर्वथा अनवद्यत्वात् । --तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० १५१ तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १ सूत्र ७ की टीका

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