Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और इसका समाधान
७८१ कराग्यभूमिकाको आरोहण करनेमें असमर्थ है वह जैसे धुनकीमें विपकी हुई रुई जल्दी छूटती नहीं वैसे ही अदा विषयक या नो पदार्थविषयक परसमय प्रवृत्तिको छोड़ने में विशेष उत्साहवान् न होने के कारण उसो मवमें मोक्षको न प्राप्तकर पहले सुरलोक आदि सम्बन्धी क्लेशपरम्पराको भोग कर अन्तम मुक्तिको प्राप्त होता है । यह 'प्रतादि और अद्भक्ति आदि परम्परासे मोक्षक हेतु हैं इसका तात्पर्य है, यह नहीं कि वे ब्रतादिक और अहंदुभक्ति बादिक प्रथम भूमिका मात्माको आंशिक दाद्धिके हेस है और इस प्रकार ये परम्परासे मोक्ष के हेतु बन जाते हैं । इसी तथ्यको आनार्य अमृतचन्दने पंचारित काय गाथा १७० को टीकामें स्पष्ट किया है। वे लिखते है..
यः खलु मोक्षार्थमुग्रतभनाः समुपार्जिताविग्यसंयमतपोमारोऽष्यसंभावितपरमवैराग्यभूमिकाधिरोहणप्रभुशक्तिः पिज्जनलाग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदाथैः सहाददादिभक्तिरूपा परसमयप्रवृत्ति परित्यक्त' नोत्सहते स खलु नाम साक्षान्मोक्षं न लभते, किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति ।
इस प्रकार व्यवहार व्रत बादि मोक्षके साक्षात साधक न होने पर भो मागम में जो उन्हें परम्परा साधक कढ़ा उसका क्या तात्पर्य है इसका स्पष्टीकरण किया।
११. प्रकृतमें 'झोन' पदका अर्थ गरमागमस्वरूप समयसारमै 'ज्ञान ही मोक्षका साधन है' ऐमा कहा है। उसका क्या तात्पर्य हैं इसका स्पष्टीकरण अपर पक्षने किया है। इस पर विशेष प्रकाश समयसार गाथा ११५ के विशेषार्थसे पड़ता है, इसलिए उसे यही दे रहे है--
आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान हो है और इस प्रकरणमें ज्ञान को ही प्रधान करके विवेचन किया है। इसलिए, 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है' यह कहकर ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। ज्ञान है वह अभेदविवक्षामें आत्मा ही है ऐसा कहने में कुछ भी विरोध नहीं है, इसलिए टीकामें कई स्थानोंपर आचार्यदेघने ज्ञानस्वरूप आत्माको 'ज्ञान' शब्दसे कहा है।
एक बात यह भी है कि जहाँ क्रियाको मोक्षका साधन कहा है वहाँ उसका अर्थ रागायिका परिहाररूप स्वरूपस्थिति ही करना चाहिए। पण्डितप्रवर टोडरमल्लजोने सांबा मोक्षमार्ग क्या है इसका स्पष्टीकरण करसे हुए मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ३७० में लिखा है--
शुन्छ आत्माका अनुमच सांचा मोक्षमार्ग है।
पापक्रियाकी निवृत्ति चारित्र है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य बोरसेन धवला पु० ६ पृ० ४० में लिखत है---
पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् । घातिकर्माणि पावं । तेसि किरिया मिच्छसासंजमकसाया। सेसिमभाबो चारिस।
पापक्रियाको निवृत्ति चारित्र है। पातिकम पाप हैं। उनकी क्रिया मिथ्यात्व, असंयम और कषाय हैं। उनका अभाव चारित्र है।
स्पष्ट है कि मोक्षमार्गमें "क्रिया' पद द्वारा स्वरूपस्थितिका हो ग्रहण किमा है, मिथ्यात्वरूप और शुभाशुभ भावोंका नहीं।
तत्त्वार्थवातिक पृ० ११ के 'हृतं ज्ञानं क्रियाहीन' आदि उद्धृत श्लोकका यही तात्पर्य है।