Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 423
________________ संका समाधान निरुन्धति नवं पापमुपातं क्षपयस्यपि । धर्मेऽनुरागारकर्म स धर्मोऽभ्युदयप्रदः ॥२५॥ जो नये पापको रोकता है और उगात पापका क्षय भी करता है ऐसे धर्म (निश्चय धर्म) में अनुरागसे जो कर्म होता है वह धर्म अभ्युदयको देनेवाला है ॥२४॥ यहाँ पर 'कर्म' शब्द च्यवन्ध और उसके निमित्तभूत शुभ परिणति इन दोनोंका सूचक है। मड़ पन किमानी गनिन वायु यादि शुभ प्रकृतियोंका बन्ध कैसे सिद्ध होता है ? इसी प्रश्नको ध्यान में रखकर आचार्य अमृतवन्द उसका समाधान करते हुए पुरुषार्थसियुमायमै लिखते है रत्नत्रयमिह हेतु निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यन्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥२२॥ इस लोकमें रत्नत्रय निर्वाणका ही हेत है, अन्यका नहीं। और जो पुण्यका आस्रव होता है यह शुभीपयोगका हो अपराध है ।।२२०।। इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए वे वहीं लिखते हैं असमग्रं भावयतो रन्ननयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽव मोक्षोपायो न अन्धनोपायः ॥२११॥ असमग्न रत्नत्रय को भाते हुए जीवके जो कमबन्ध होता है वह नियमसे विपक्ष (राग) का कार्य है, क्योंकि जो मोक्षका उपाय है वह बन्धनका उपाय नहीं हो सकता ॥२१॥ इस पर शंका होती है कि आगममें जो सम्यक्त्व और सम्यक्चारित्रको तीर्थकर प्रकृति और आहारकद्विक प्रकृतियोंके बन्धका हेतु कहा है वह कैसे बनेगा ? इस प्रश्नका समाधन करते हुए वे वहीं लिखते हैं सति सम्यवस्व चारित्रे तीर्धकराहारबन्धको भवतः योग-कषायौ नासति तत्पुनरस्मिनुदासीनम् ।।२१८1। सम्यक्त्व और चारित्रके होने पर योग और कषाय वोधकर और माहारकद्वय इनके बन्धक होते है, सम्यक्त्व और चारित्रके अभावम नहीं। ( इसलिए उपचारसे सम्यक्त्व और चारित्रको बन्धका हेतु कहा है। (वस्तुतः देखा जाय तो) वे दोनों इस (बच्च) में उदासीन है। __ यदि कहा जाय कि जो जिस कार्यका हेतु नहीं उसे उसका उपचारसे भी हेतु पयों कहा गया है ? इसका समाधान करते हुए वे वहीं लिखते हैं एकस्मिन् समवानादत्यन्तविरुद्धक्रायोरपि हि ।। इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्ताशापि रूहिमितः ।।२१९।। एकमें समवाय होनेसे अर्याल एक आत्मामें (निश्चवधर्म और व्यवहारधर्मका) समवाय होनेसे अत्यन्त विरुव कार्यों का भो वसा व्यवहार ऐसे हदिको प्राप्त हुआ है जैसे घो जलाता है यह व्यवहार रूढिको प्राप्त हुआ है ॥२१॥ ये कतिपय आगमत्रमाण है । इनसे यह स्पष्ट रूपसे समझ में आ जाता है कि निश्चयधर्म पन्धका वास्तविक हेतु न होने पर भी उसके सद्भाव में अमुक प्रकारका बन्ध होता है यह देख कर जैसे उसे उस बन्धका उपचारसे हेतु कहा जाता है वैसे ही व्यवहारधर्म निश्चयरत्नत्रयका १००

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