Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शका १६ और उसका समाधान
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बन जाता है । यथा - निरपेक्षत्वका अर्थ है प्रत्यनोक धर्मका निराकरण तथा सापेक्षत्वका अर्थ है उपेक्षा, अन्यथा प्रमाण और नयमें अविशेषताका प्रसंग उपस्थित होता है। कारण कि प्रमाण धर्मान्तर के बादामलक्षणवाला होता है, नय धर्मान्सर की उपेक्षा लक्षणवाला होता है और दुर्नय धर्मान्तरकी हानिलक्षणाला होता है, यहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं । तथा प्रमाणसे तदतत्स्वभाव वस्तुको प्रतिपत्ति होती है, नयसे तत्को प्रतिपत्त होती है और दुर्नयसे अन्य ( धर्मान्तर ) का निराकरण होता है । इस प्रकार समस्त प्रमाण, नय और दुयोंका संग्रह हो जाता है, क्योंकि इनके सिवाय जाननेके दूसरे प्रकार सम्भव नहीं हैं ।
यह आगमवचन है। इससे हमें तीन बातोंका स्पष्टतः ज्ञान होता है
(१) सुनयका विषय अर्थक्रियाकारी होता है ।
(२) सुनय सापेक्षत्व का अर्थ उपेक्षा है ।
(३) और सुनय प्रतिपक्षी नयके विषय में उपेक्षा धारण कर मात्र अपने विषयकी प्रतिपत्ति कराता है ।
यह तो प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है कि लोकका समस्त व्यवहार पति होनेपर भी उसे मिया नहीं माना जाता। कोई एक व्यक्ति डोमें जाकर यदि अनार लेना चाहता है तो दुकानदार यह नहीं कहता कि अनार पर्यायविशिष्ट पुद्गल दीजिए। किन्तु वह जाकर अनारकी माँग करता है, और दुकानदार इष्टार्थको जानकर उसको उपलब्धि करा देता है यह है अर्थक्रियाकारीपना जो सुनवसे सम्पन्न होता है। आवाका यहाँ यह कहना है कि यह जितना भी पर्यायाश्रित व्यवहार है वह रागमूलक होनेसे मोक्षमार्ग में ऐसे व्यवहारको छुड़ाया गया है। 'छुड़ाया गया है' इसका अर्थ है-उसमें उपेक्षा कराई गई है। साधक व्यवहारको छोड़ता नहीं, किन्तु निश्चय प्राप्तिरूप मूल प्रयोजनको ध्यान में रखकर उसे करता हुआ भी उसमें उपेक्षा रखता है और मात्र निश्चय के विषयको आश्रय करने योग्य स्वीकार कर निरन्तर अपने उपयोगको उस दिशा में मोड़ने का प्रयत्न करता रहता है। वह यह अच्छी तरह जानता है कि प्रत्येक वस्तु अनेकास होनेसे वह सत् भी हैं । और अमत् भी हैं परन्तु उसने पर्यायायिक नयके विषयभूत असत् धर्मकी उपेक्षाकर निश्चय नयके भूत 'सत्' को अपना केन्द्रविन्दु बनाया है। गतः 'सत्' धर्म सत्स्वरूप हो है उसमें 'असत्' धर्मका अभाव है, इसलिए प्रत्येक साधक व्यवहार नयके विषय प्रति उपेक्षा धारण कर अपनी बुद्धिमें यह निर्णय करता है कि 'मैं तो मात्र एक ज्ञायकस्वरूप है, मैं न मनुष्य हूँ, न देव हूँ, न नारको हूँ और न तिर्यय हूँ' आदि । यतः प्रत्येक सुनयका विषय अर्थक्रियाकारी स्वीकार किया गया है, इसलिए बुद्धिमें ऐसा निर्णय करने से वह ( साधक) अपनी बुद्धिको उसमें युक्त कर देता है। फल होता है रागकी हानिके साथ स्वभावप्राप्ति । आचार्य कहते हैं कि यही मोक्षमार्ग है। यदि मोक्षकी प्राप्ति होती है तो एकमात्र इसी मार्गसे होती है। अन्य सब विडम्बना है —भव बन्धनकी रखड़ना है ।
इससे अपर पक्षको यह सुगमतासे समझ में आ जायगा कि नयप्ररूपणा में 'सापेक्ष' का अर्थ क्या इष्ट है और सुनके विषयका अवलम्बन हो जीवनमें क्यों अर्थक्रियाकारी है ।
अपर पक्षने नयचक्रादिसंग्रहको गाथा ६८ को उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहा है कि 'मिथ्या व्यवहार नयसे बन्ध होता है और सम्यक् व्यवहार नयसे मोक्ष होता है। किन्तु वह पक्ष इस गाथासे ऐसा अभिप्राय फलित करते समय यदि उसीकी गाथा ७७ पर दृष्टिपात कर लेता तो सम्भव था कि वह उक्त प्रकार अपना मत न बनाता । गाथा ७७ इस प्रकार है