Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 439
________________ शंका १७ और उसका समाधान ८०९ तक उपचारको समझनेकी आवश्यकता बनी रहती है । दूसरी बात यह है कि इस लक्षणमैं पठित 'परके सम्बन्ध' शब्दका अर्थ मापने 'परके आश्रय' किया है, लेकिन इससे उपचार शब्द बिलकूल संकुचित अर्थका बोधक रह गया है, जिसका परिणाम यह है कि लक्षणके आपरपर जिस प्रकार आप घोके आधारभूत घटको वृतकुम्भ कह सकते है उस प्रकार 'जीवो वर्णादिमान' नहीं कह सकते है, क्योंकि जीवन शो वर्णादिकका आधारभूत है और न वर्णादिविशिष्ट पुगदल द्रश्यका ही आधारभूत है। इसी प्रकार 'अन्नं चै प्राणाः, 'सिंहो माणवकः' इत्यादि स्थलों में भी इस लक्षणके माघारपर उपचारको प्रवृत्ति नहीं की जा सकती है।। यद्यपि आगे चलकर आपने 'उपचार' शब्दका कुछ पमिाजित दुसरा अर्थ भी किया है, जैसा कि आपने लिखा है कि 'मूल वस्तुके वैसा न होने पर भी प्रयोजनादिवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करने को उपचार कहते है परन्तु इसमें भी परित 'व्यवहार' शब्दसे आपको क्या अर्थ अभीष्ट है ? और 'प्रयोजनादि' शब्दके अन्तर्गत आदि शब्दसे आप किस अर्थका बोध कराना चाहते है ? यदि इतनी बात आप स्पष्ट कर दें तो फिर हम और आप उपचारके लक्षणके सम्बन्ध में सम्भवतः एकमत हो सकते है। वास्तव में 'एक वस्तु या धर्मको किसो वस्तु वा धर्म में आरोप करना' हो उपचारका युक्तिसंगत लक्षण है, क्योंकि इस लक्षणके आधारपर 'घृतकुम्भ' 'जीवी वर्गादिमान' 'अवै प्राणा:' और 'सिंहो माणवका' आदि वाक्य प्रयोगों की संगति उचित ढंगमें हो जाती है। परन्तु यदि आपको हमारे द्वारा मान्य उपचारके इस लक्षणको, जो कि अपके द्वितोय लक्षणके बहुत समीप है, जाप स्वीकार न करें तो कृपया नीचे लिखी वातोंका उत्तर दें (१) द्वितोय लक्षणमें पठित 'व्यवहार' शब्धसे आपको क्या अभिप्रेत है ? (२) उसी में पठित 'प्रयोजनादि पदके आदि शब्दसे भी आप कौन-सा पदार्थ गृहीत करना चाहते हैं ? आगे आपने लिखा है कि 'मुख्य के अभाव में निमित्त तथा प्रयोजनको दिखलाने के लिये उपचार प्रवृत्त होता है' हो सकता है यह आपने आलाप-पत्नतिके मुख्याभाचे सति प्रयोजने निमित्से घ उपचार प्रवससे । इस कथनके आधारपर ही हिडा हो। इसलिये हम यहाँपर यह कह देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि आलापपतिके उक्त वाक्यका अर्थ करने में आपने घोड़ी भूल कर दी है। उसका सुसंगत अर्थ यह है कि 'मुख्यका अभाव रहते हुये निमित्त और प्रयोजनके बश उपचार प्रवृत्त होता है।' इस अर्धन हमारे और आपके मध्य अन्तर यह है कि जहाँ आप उपचारकी प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलानके लिये करना चाहते हैं वहाँ हमारा कहना है कि उपचार करनेका कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्यम हो और उसका (उपचारका) कोई निमित्त (कारण) वहीं विद्यमान हो तो उपचारको प्रवृत्ति होती है। उपचारको इस प्रकारकी यह प्रवृत्ति 'घृतकुम्भः', 'जीवी वर्गादिमान', 'अन्न वै प्राणाः' ओर 'सिंहो माणवका' आदि जहाँ २ मावश्यकता होती है वहाँ वहाँ हो को जातो है। अब विचार यह करना है कि निमित्त कारणमें कारणताका और व्यवहारनयमें नयरवका उपचार करना क्या आवश्यक है ? और यदि बावश्यक है तो क्या वह सम्भव है, तथा इनमें उपचारका लक्षण घटित होता है क्या? मापके उत्तरमें इन बातोंपर आपका मत यह है कि कारणता उपादान में हो रहा करती है उसी १०२

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