Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 437
________________ प्रथम दौर शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्तकारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्व उपचार है तो इनमें उपचारका लक्षण घटित कीजिये ? समाधान १ (१) परके सम्बन्ध ( प्राश्चय )रो जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं । इसका उदाहरण देते हुए समयसारकलशमें कहा है घृतकुम्माभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न 'चेत् । जीवी वर्णादिमज्जीवजरुपनेऽपि न तन्मयः ।।१०।। अर्थ-यदि 'धीका घड़ा ऐसा कहने पर भी जो बड़ा है यह धीमय नहीं है (मिट्टीमम हो है) तो इसी प्रकार 'वर्णादिमान् जीव' ऐसा कहनेपर भी जो जीव है वह वर्गादिमय नहीं है (ज्ञानधन हो है) ॥४॥ परके योगसे जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं इसका विशदरूपसे स्पष्टीकरण श्लोकवातिकके इस वचनसे भी हो जाता हैन हि उपचरितोऽग्निः पाकादावुपयुज्यमानो दृष्टः, सस्य मुख्यत्वप्रसंगात् । -श्लोकवार्तिक म०५ सू०९ अग्निके स्थान में उपचरित अग्निका उपयोग नहीं देखा जाता, अन्यथा उसे मुख्य अग्नि ( यथार्थ अग्नि) हो जानेका प्रसंग आता है । इसी प्रकार परमागममें उपचारकेमुख्योपचारभेदैस्तेऽवयनैः परिवर्जिताः । -त. श्लो. पू० ४१९ भूतादिन्यवहारोऽतः कालः स्यादुपचारतः । -तर इलो पृ.४१९ अनेक उल्लेख उपलब्ध होते है । जिनके अनुगम करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि मूल वस्तुके वैसा न होनेपर भो प्रयोजनाविवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करनेको उपचार कहते हैं। मख्यके अभाव में निमित और प्रयोजनादि बतलाने के लिये उपचार प्रवृत्त होता है। (२) जिस प्रकार निश्चय कारक छह प्रकार के है उसी प्रकार व्यवहार कारक भी छह प्रकारके हैकर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । ऐसा नियम है कि जिस प्रकार कार्यको निश्चय कारकों

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