Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ -. ८०२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यह श्रदान करने योग्य है, यह श्रदान करने योग्य नहीं है, यह श्रद्धान करनेवाला है और यह श्रद्धान है आदि, म्लेच्छस्थानीय उसे म्लेच्छभाषास्थानीय व्यवहारनय द्वारा परमार्थका ज्ञान कराना आवश्यक है। ऐसे प्राथमिक शिष्यके लिए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि वह व्यवहारनपसे परमार्थको जानकर परमार्थके अवलम्बनसे तलवरूप परिणमन द्वारा सूखसे-सहजरूपसे सम्यग्दर्शनाधि मोक्षमार्गस्वरूप तीर्थ में प्रवेश करता है। न कि उनके लिए-जिन्हें परमागमका अभ्यास करते हुए चिरकाल व्यतीत हो गया है, जिन्होंने पंचपरमेष्ठीके स्वरूपको जानकर उनकी पूजा-वन्दनामें अपना जीवन निकाल दिया है या मोचिरकालसे अणुवत-महात्रतादिका पालन कर रहे है और जो उनमें यत्किचित् दोष लगने पर कठोर प्रायश्चित्ताधि द्वारा सदाकाल इसका कारण करने में सस्पर रहते है । यह अपर पक्ष हो बसलावे कि हम उन्हें म्लेम स्थानीय मानकर प्राथमिक शिष्यके रूपमें स्वीकार कैसे करें? हमारा आत्मा तो इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। उनके लिए तो व्यवहारनय इस अर्थमे प्रयोजनवान है कि वे जिस भूमिकामें हों उसके अनुरूप व्यवहारका चरणानुयोगके अनुसार उन्हें यथार्थ ज्ञान होना चाहिए। और सविकल्प अवस्था हेयबुद्धिसे उसका यथाविधि पालन करते हुए भी उनकी दृष्टि सदा परमार्थपर बनी रहनी चाहिए। यह है पंचास्तिकायके उक्त उल्लेत्रका बाशय । इसी आशयको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर जयवन्दजीने समयसार गाथा ८ के तात्पर्यको स्पष्ट करते हए उसके भावार्थमें ये शब्द लिपिबार किये है लोक शुबनयको जानते ही नहीं है, क्योंकि शुद्धनयका विपय अभेद एकरूप वस्तु है । तथा अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि इसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार हैं। इसलिए न्यवहारके द्वारा ही शुन्द नयस्वरूप परमार्थको समझ सकते हैं । इस कारण म्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला जान उसका उपदेश किया जाता है । यहाँ पर ऐसा न समझना कि व्यवहारका मालम्बन कराते हैं बल्कि यहाँ तो व्यवहारका आलम्बन छुड़ाके परमार्थको पहुँचाते हैं ऐसा जानना। अपर पक्षका कहना है कि यदि विवक्षित नय अपने अपने प्रतिपक्षी नयके सापेक्ष है तो सुनय अथवा सम्यक् नय है जो सम्यग्यदृष्टिके होते हैं। मिथ्यादृष्टिके वही नय परनिरपेक्ष होनेसे झूमय अथवा मिथ्यानय होते हैं।' समाधान यह है कि प्रत्येक नय सापेक्ष होता है इसका तो हमने कहीं निषेध किया ही नहीं । परन्तु यहाँ पर 'रापेक्ष' का अर्थ क्या इसे जान लेना आवश्यक है । असहस्री १०२९० में आचार्यद्वव 'मिथ्यासमूहो मिथ्या' इत्यादि कारिकाकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं सुनय-दुर्ण योर्यास्माभिलक्षणं व्याख्यातं तथा न चोय न परिहारः, निरपेक्षाणामेव नयाना मिथ्यात्वात् सद्विषयसमूहस्य मिथ्याम्योपगमात, सापेक्षाणां तु सुनयत्वात् तद्विषयाणां अर्थक्रियाकारित्वात् तत्समूहस्य वस्तुत्वोपपत्तेः । तथा हि निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षस्वमुपेक्षा,अन्यथा प्रमाणनयाधिशेषप्रशंगात् धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलमणत्वात् प्रमाण-नथ-दुर्ण याना प्रकारान्तरासंभवाच प्रमाणातदुतत्स्वभावप्रतिपत्तेः नयात्तव्यतिपत्तेः दुणयात्तदन्यनिराकृतेश्च । इति विश्वीपसंहतिः, व्यतिरिक्त - प्रतिपत्तिप्रकाराणामसम्भवात् । सुनय और दुर्नवका जिस प्रकारसे हमने लक्षण कहा है उस प्रकारसे न शंका है और न उसका परिहार है, क्योंकि निरपेक्ष नय हो मिथ्या होते हैं,कारण कि उनके विषय-समसको मिथ्याला स्वीकार किया है। सापेक्ष नय तो सुनय होते हैं, क्योंकि उनके विषय अर्थक्रियाकारी होते हैं तथा उनके विषयसमूहमें वस्तुपना

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476