Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचा अब रह गवा साधन-साच्यभावका विचार सो इसका निर्देश आचायोने परमागममें तीन प्रकारसे किया है-निश्वपत्नयसे, सद्भुत व्यबहारनयसे और असदभूतव्यवहारनयसे। निश्चवनयसे सम्यग्दर्शनादिरूप परिणत आरमा ही साधन है और वही साध्य है। सद्भुतव्यवहारन यसे निश्चय सम्यग्दर्शन आदि एक-एक साधन है और आत्मा साध्य है। असद्भूतत्र्यवहारनवसे शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहारपर्म साधन है और बात्मा साध्य है। यहाँ सर्वप्रथम त, तप आदि प शुभ प्रवृत्ति में धर्मका आरोगकर उसे व्यवहारधर्म कहा गया है और उसके बाद उसमें निश्चयधर्म के साधनपने का व्यवहार किया गया है ।
यहाँ व्रसादिरूप शुभ प्रवृत्तिको जो धर्म कहा है वह उपचारसे ही कहा है। इससे सिद्ध होता है कि व्रत आदि निश्चय मोक्षमागके यथार्य साधन नहीं है, सहरसम्बन्ध आदिको अपेक्षासे हो इन्हें साधन कहा गया है। पण्डितप्रवर टोडरमलजो मोक्षमार्गप्रकाशक १०३६७ मे लिखत है--
वहुरि बन तप आदि मोक्षमार्ग हैं नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षा उपचारते इनको मोक्षमार्ग कहिए है। तातें इनको व्यवहार कया ।
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे वहीं पृ० ३७६ में लिखते है--
बहुरि नीचली दशा विष केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुन्खोपयोगका युकपना पाईए है 1 सातै उपचार करि व्रतादिक शुभोपयोगी मोक्षमार्ग कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय माथा १६० में निश्चय मोक्षमार्गके साथ अधिनाभावरूपसे होनेवाले ब्रतादिको उपचारसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है। वह निश्चय मोक्षमागकी सिद्धिका हेतु है, इसलिए इसको टीकाम आचार्यद्वयने व्यवहारमयसे व्यवहार मोक्षमार्गको साधन और निश्चय मोक्षमार्मको साध्य कहा है। इस गाधाम मोक्षमार्गका अनात्मभूत लक्षण कहा गया है, इसलिए वह मोक्षमार्ग कहलाया । अतः यह अनात्मभूत लक्षण होकर भी आत्मभूत यथार्थ मोक्षमार्गकी सिद्धि करता है, अतः व्यवहार मोक्षमागे साधन और मिश्चय मोक्षमागं साध्य एसा व्यवहार करना उचित ही है यहउक्त कथनका तात्पर्य है।
गाथा १६१ में निश्चयनयसे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे समाहित आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग कहा गया है। यह मोक्षमार्गका आत्मभूत लक्षण हैं। इससे हम जानते है कि निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यम्तान और निश्चय सम्यक्चारित्र इन तोनोंमें एक-एकको मोक्षमार्ग कहना सद्भुतव्यवहार नयका वक्तव्य है और धर्मादि द्रव्योंकी श्रद्धा, अंग-पूर्वगत ज्ञान तथा अशुभरी निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको मोक्षमार्ग कहना यह असमृतव्यवहार नयका वक्तव्य है। इन्हें असद्भूतव्यबहारनयसे मोक्षमार्ग इसलिए कहा गया है कि इसमें यथार्थरूपम मोक्षमार्गपना तो नहीं है, परन्तु ये यथार्थ मोक्षमार्गके अविनामावी है, इसलिए इनमें एकार्थसम्बन्ध होनेसे मोक्षमार्गका उपचार किया गया है । इस प्रकार इस गाथाको टीका आचार्य वमतचन्दने व्यवहार मोक्षमार्गको साधन और निश्चय मोक्षमार्गको साध्य क्यों कहा इसका स्पष्टीकरण हो जाता है।
लोकमें निश्चय मोक्षमार्गको भी धर्म कहते है और व्यवहार मोक्षमार्गको भो धर्म कहते है । परन्तु इन दोनोंमें अन्तर क्या है इसे समझने के लिए अनगारधर्मामृत अ० १, श्लोक २४ पर दृष्टिमात कीजिए। पण्डितप्रवर पाशाघरजो इन दोनोंमें भेदको दिखलाते हुए लिखते है