Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 428
________________ ७९८ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा सानिपातिक एक भाव नहीं है, इसलिए उसका अभाव कहा है. संयोगको अपेक्षा है यह आप्रवचन है। स्पष्ट है कि इन दोनोंके मिश्रित उपयोगको शुभपयोग कहना उचित नहीं है। आगममें तो शुभोपयोग का यह लक्षण कहीं लिया नहीं । फिर भी अपर पक्षने शुभोपयोगका यह लक्षण कल्पित करने का साहस किया इसका हमें आश्चर्य है। अपर पक्षने प्रतिशंका में पारित्रगुणकी छायोपशमिक पर्यायको ध्यानमें रखकर यह लिखा है कि 'वह मिचित पर्याय है, केवल शुद्ध पर्याय नहीं । किन्तु शुद्धाशुद्ध है और स्थाई नहीं है और प्रतिशंका ३ में वह पक्ष सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव और कामरूप अशुद्धभाव इन दोनों शुद्धाशुद्ध भात्रोंको मिलाकर मिश्रित भाव ह रहा है । इस प्रकार जो उसके कान में पपर विरोध है उसपर वह स्वयं दृष्टिपात करंगा ऐसी हमें आशा है। इसलिए पिछले उत्तर में हमने जो यह लिखा था कि कई स्थानोंपर प्रतिशंका २ में मिली हुई शुद्धाशुद्ध पर्यायको शुभ कहा गया है, इससे सष्ट विदित होता है कि यह प्रतिशंका २ में स्वीकार कर लिया गया है कि जितना रागांया है वह मात्र बन्धका कारण है पर उसे निर्जराका हेतु सिद्ध करना इट है, इसलिए पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करनेकी चेष्टा की गई है सो यह कथनको चतुराईमात है।' वह उचित ही लिखा था, क्योकि आगममें कहीं भी मिन पर्यायको शुभभाव नहीं कहा है । शुभ और अशुभ ये भेद योग और उपयोगके है । इनके सिवाय उपयोग शुभ भी होता है। अतएव बारित्रगुणको मिश्रपर्यायको या सम्यक्त्व तथा रागकी कल्पित को गईं प्रिश्न गर्यायको शुभ कहना आगमसंगत नहीं है। अपर पक्षने भावपाहुडको १५१ वी गाथा उद्धृतकर यह सि करना चाहा है कि जिनक्ति जन्ममरणरूपो वेलके मूलका नाश करनेवाली है । इसमें सन्देह नहीं कि जिस सम्यग्दृष्टिके जिनदेव में अपूर्व भक्ति होती है, वह केवल भक्तिरूप प्रशस्त रागके कारण पुण्यबन्ध ही नहीं करता, किन्तु आत्मामें प्राप्त हुई सम्यग्दर्शनरूप विशुद्धिके कारण जन्म-मरणरूपो वेलको समूल नाश करने में भी समर्थ होता है। यही भाव भावपाहुडको उक्त गाया व्यक्त किया गया है। एकके कार्यको सहचर सम्बन्धबश दूसरेका कहना ऐसा व्यवहार जिनागम में मान्य' ठहराया गया है। प्रकृतमें इसी पबहारको ध्यानमें रखकर उक्त कथन किया गया है। पुरुषार्थसिद्धग्रुपायके आधारसे विशेष खुलासा पूर्वमें ही कर आये हैं। अपर पक्षने परमात्मप्रकाश ब. २ गाथा ६१ की टोकामें आये हुए 'मुख्यनृत्या' पदको देखकर यह स्वीकार कर लिया है कि 'देव, शास्त्र, गुरुकी भक्तिको गौणरूपसे कर्मक्षयका हेतु कहा गया है इसकी हमें प्रसन्नता है. क्योंकि स्वभावके लक्ष्यसे जो आत्माद्धि उत्पन्न होती है उसमें बाह्य (व्यवहार) हेतु गौण है। परके लक्ष्यसे कर्मलपणा न होकर कर्मबन्ध होता है यह इसका तात्पर्य है। चारित्रगुणकी मिश्रित अखण्ड पर्यायमें जितना शुद्धयंश है वह पाप-पुण्य दोनोंकी निवृत्तिरूप है और जितना रागांश है, वह पापकी निवृत्ति और पुण्यकी प्रवृत्तिरूप है, इसलिए उभयकी निवृत्तिरूप जितना शुद्धथंश हैं वह स्वयं कर्मक्षयरूप होनेसे कर्ममयका हेतु है और जितना प्रवृत्त्वंश है वह स्वयं आस्त्रव-बन्धरूप होनेसे बन्धका हेतु है। तत्त्वार्थसूत्र में जो सम्यक्त्वको देवाका आस्रव लिखा है उसका आशय इतना ही है कि सम्यक्त्वके काल में मनुष्यों और तियञ्चोंके रागनिमित्तक यदि आयुका बन्द होता है तो देवायुका हो होता है। विशेष खुलासा आगम प्रमाणके साथ इसी उत्तर में पहले हो कर आये है।

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