Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 429
________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२९ कहाँ कोन उपयोग किस दृष्टिसे कहा गया है इसका भी विशेष स्पष्टीकरण आगमरमाणके साथ पूर्व में किया ही है। बृहद्रव्यसंग्रहै, गाथा ३४ की टोकागें 'असंयतसम्यग्दष्टिशावक' इत्यादि पचन शुद्धोपयोगका व्यवहार (उपचरित) हेतु क्या है यह दिखलाने के लिए लिखा गया है । शुभोपयोग परम्पससे अर्थात् उपचारसे शुद्धोपयोगका सापक है इसका हमने भी नोकिया है। यदि सनुप में शुमारयोगशद्धापयोगका यथार्थ हेतु होता तो उसे शद्धोपयोगका परम्परासे साधक त्रिकालमें नहीं लिखा जाता। स्पष्ट है कि इस वचन द्वारा केवल यह बतलाया गया है कि जब यह जीव स्वभावसन्मुख होकर झाद्धोपयोगको उत्पन्न करता है, उसके पूर्व इसके नियमसे शुभोपयोग होता है । उसके अशुभोपयोग त्रिकाल में नहीं होता यह दिखलाना ही उक्त वाक्यका प्रयोजन है । अपर पक्षने दूसरो दृष्टिसे ४ थे से १२ वें गुणस्थान तक जो शुभोपयोग लिखा है वह दृष्टि कोन मी और किस आधारसे यह कथन किया गया है यह हम न जान पायें। वस्तुतः यह कथन मागमनिरुद्ध होनेसे इस पर विचार करना ही व्यर्थ है। फिर भी यहाँपर हम यह स्पष्ट कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं कि किसी पर्यायका शुद्धाशुद्ध मिश्ररूप होना अन्य बान है और लपयोगका शुभ, अशुभ और शुद्धरूप होना अन्य घान है. क्योंकि उपयोग अनुष्ठानरूप होता है | जब विषयों के आलम्बन से अशुभ क्रियामें यह जीव उपयुक्त होता है तब अशुभोपयोग कहलाता है, जब देवादि और नादिके आलम्बनसे शुभ क्रियामें यह जीव उपयुक्त होता है तथ शुभोपयोग कहलाता है और जब चिश्चमत्काररूप ज्ञायक आत्माके अबलम्बन द्वारा शुद्ध निश्चयनयरूपसे यह जीव उपयुक्त होता है तब शुद्धोपयोग कहलाना है। इस प्रकार आलम्बनभेदसे उपयुक्त आत्माका उपयोग तीन प्रकारका होता है। चारित्रकी मिश्ररूप पर्याय शुभोपयोगके काल में भी है और शुद्धोपयोगके काल में भी है, परन्तु आलम्बनके भेदसे उपयोग दो भागों में विभक्त हो जाता है, अतएव चारित्र गुणकी मिश्र पर्यायसे उपयोगको भिन्न ही जानना चाहिए। जहाँ शुभोपयोग होता है वहाँ वह और चारित्रगुणका रागांश ये दोनों तो बन्धके ही हेतु हैं। हाँ वहाँ जिनना शुद्धपश होता है वह स्वयं संवर-निर्जरारूप होनेसे संवर-निर्जराका हेतु है। तथा जहाँ शुद्धोपयोग होता है वहाँ वह और जितना शुद्धया है वे दोनों स्वयं संबर-निर्जरारूप होनेसे संपर-निजराके हेतु है तथा यहाँ जितना रागांश है वह बन्धका हेतु है। यह आगमकी व्यवस्था हूं, हम जानकर तत्वका व्याख्यान करना हो तचित है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने समयसार निर्शय अधिकारम भोगमें तन्मय होकर उपयुक्त हुए जीवके भोगको निर्जराका हेतु नहीं कहा है। किन्तु सम्पदाको सविकल्प दशाम भोगको क्रिया होते हुए भी भोगमें जो विरक्ति है उसे निर्जराका हेतु कहा है। इसके लिए गाया १६५ आदि पर दृष्टिपात कीजिये । समयसारकलशमें इसका विशदतासे स्पष्टीकरण करते हए लिखा है नाश्नुते विवमसेवनेऽपि यत् स्वं फल विषसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागतात्रलात् सेवकोऽपि तदसावसेचकः ।।१३५॥ यह ज्ञानी गुरुष विषय सेवन करता हा भी ज्ञानवैभव और विरागताके बलसे विषयसेवनके निजफल (रजित परिणाम) को नहीं मांगता, इसलिए वह सेवक होने पर भी असेवक है ॥१३॥ सम्यग्दृष्टि के नियमसे ज्ञान वैराग्य शक्ति होती है (H.क. १५६) यह लिखकर तो आचार्य अमतचन्द्रने उक्त विषयको और भो स्पष्ट कर दिया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476