Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और उसका समाधान
७९७ जीवको शुभोपयोगवाला कहा गया है। यह शुभोपयोग गृहस्थों के बहुलतासे पाया जाता है। किन्तु मुनिचोंके शुद्धोपयोगकी मुख्यता बनलाई है, क्योंकि गृहस्थोंके जहां अधिक मात्रामें परका अवलम्बन बना रहता है वहां साध निरन्तर परके अवलम्बनको गौणकर अपने बायकस्वभाव आस्माके अवलम्बनके प्रति ही सदा उद्यमवान रहते हैं। वे यद्यपि बाह्य में आहारादि क्रिया करने में उपयुक्त प्रतीत होते हैं तथापि अन्तरंगमें उनके बहुलनासे आत्माका अवलम्बन बना रहता है, इसलि र इन क्रियाओं के काल में भी उनके आत्मकार्य में सावधानों देखी जाती है।
___अपर पक्षने अपने पक्षका समर्थन करनेवाला जानकर उक्त टोकादनन यद्यपि उद्धृत तो किया है, परन्तु वह इस समग्र कथनपर सम्बों के साथ दृष्टिपात कर लेता तो उसकी ओरसे शभोपयोगका जो अर्थ किया गया है वह कभी भी नहीं किया गया होता । संक्षेपमें परके लक्ष्यसे शुभरागसे अनुवासित उपयोगका होना शुभौगयोग है और आत्माके लक्ष्यसे उपयोगका तन्मय होकर परिणमना शुद्धोपयोग है। इस प्रकार शुद्धोपयोगमे भिन्न शुभपयोग क्या है इसका निर्देश किया।
२. अब उक्त टीकावचनपर दृष्टिपात कीजिए। इस में गृहस्थके शुद्धात्माके अनुभन का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है। इसमें बतलाया है कि जिस प्रकार ईधन स्फटिक मणि (सूर्यकान्त मणि) के माध्यमसे सूर्यके तेजको अनुभवता है अर्थात स्फटिकमणिक संयोगमें जिस प्रकार ईधन सूर्य किरणोंको निमित्तकर प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार गृहस्थ भी शुद्धामा प्रशस्त राग होनेसे रागका संयोग रहते हुए भी शुद्धात्माके लक्ष्यस सगका (शुज्ञात्माका) अनुभव करता है। यहाँ रागका प्राचुर्य है और शुद्धिकी मन्दता। फिर भी यह जीच उम्र पुरुषार्थ द्वारा आत्माके लक्ष्यसे रागको हीन-हीनतर करता हुआ शुद्धि में वृद्धि करता जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे स्पष्ट है कि जहाँ व्यवहारधर्मको मोक्षका परम्परा साधन कहा है वहाँ उसका अभिप्राय इतना ही है कि उसके सद्भावमें जो स्वभावके लक्ष्यसे शुद्धि में आंशिक वृद्धि होती है वह व्यवहार धर्म उसको वृद्धिमें बाधक नहीं है । शुद्धिको उत्पत्ति और उसको वृद्धि का यहो क्रम है। यही कारण है कि श्रमणोंको लक्ष्यकर प्रवचन मार गाथा २४५ में यह कहा है कि श्रमण शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगीके भेदसे दो प्रकार के होते हैं। उनमें जो शुद्धोपयोगी श्रमण है वे निराम्रव हैं और जो शुभोपयोगी श्रमण हैं, वे सास्रव हैं। इस नियममें गृहस्थोंका भी अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि पथार्थ मोशमार्ग एक है और वह यथापदवी सबके समानरूपसे लागू होता है। गृहस्य शुभोपयोगके द्वारा कर्मों को क्षपणा करते है और मुनि शुद्धोपयोगके द्वारा कर्मोकी क्षपणा करते हैं ऐसा न तो आगम ही कहता है और न तक तथा अनुभवसे ही सिद्ध होता है । सष्ट है कि उक्त वचनके आवारसे यह सिद्ध नहीं होता कि पर देवादिके लक्ष्यसे होनेवाला व्यवहारधर्म निराकुललक्षण मोक्षसुखका यथार्थ साधन है।
अगर पक्षने सम्यग्दर्शनरूप शुद्ध भाव और कवायरूप अशुद्धभाव इन दोनों शुद्धाशुद्धभावों के मिश्रितरूप उपयोगको शुभोपयोग लिखा है। किन्तु उस पक्षका यह लिखना ठीक नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धाकी स्वभाव पर्याय है और राग चारित्र गुणकी विभाव पर्याय है। इन दोनों का मिश्रण बन ही नहीं सकता। अपर पर कह सकता है कि सान्निपातिकपने की अपेक्षा हम इन दोनोंको मिश्रित कहते है, किन्तु उस पक्षका यह कहना क्यों ठोक नहीं, इसके लिए हम उसका ध्यान तत्त्वार्थवाति अ० २ सू०७ को इन पंक्तियों की ओर आकृष्ट करते हैं
सानिपातिक एको भाबो नास्तीति 'अभाघात्' इत्युच्यते, संयोगापेक्षया अस्तीत्या वचनम् ।