Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ शंका १६ और उसका समाधानं मैला पु० ५ में यह वचन भी आया है कि अती संसारो छिष्णो अपुगलपरियहमेत कदो । अनन्त संसारका छेद हुआ, अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण किया । इस प्रकार अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थन में समझकर घवलाके ये दो वचन उद्धृत किये हैं । अब विहार यह करना है कि घत्रलाके उक्त कथनों का आशय क्या है ? इन उल्लेखों में से प्रथममें 'पहले के अपरीत संसारका नाशकर उत्कृष्टरूपसे सम्यक्त्व गुणके कारण अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण परीत संसारकर सेनेकी ' बात कही गई है । तथा दूसरे उल्लेख में 'सम्यक्त्वगुण के कारण अनन्त संसारका छेदकर अर्धपुद्गपरिवर्तन प्रमाण काल कर लेने की बात कही गई है । किन्तु इन उल्लेखोंसे यह ज्ञात नहीं होता कि यहाँ 'वपरीत' और 'अनन्त' शब्दका क्या आशय है ? और सम्यक्त्व गुणके द्वारा यदि अपरीत या अनन्त संसारका उच्छेद होता है तो जो परीत संसार शेष रहता है उसका क्या आशय है ? वह अधिक से अधिक अर्थपुद्गल परिवर्तनप्रमाण या कमसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष रहता है, मात्र इतना ही उसका आदाय है या ये 'अपरीत, परीत और अनन्त' शब्द नयवचन होनेसे किसी दूसरे अभिप्रायको सूचित करते है ? प्रथम मार्मिक है, अतएव आगमके प्रकाश में इन पर विचार करना होगा | अनों में निहित वस्योंपर विचार करें मूलाचार अधिकार २ में मरणकालमें सम्यक्त्वकी विराधनाकर जो जीव मरण करते हैं उनको ध्यान में रखकर विचार करते हुए आचार्य लिखते है मरणे विराहिए देवदुगाई, दुल्लहा य किर बोही । संसारो य भणतो होड़ पुण आगमे काले ॥ ६१ ॥ मरण के समय सम्यक्त्वकी विराधना करनेपर देवदुर्गति asst प्राप्त करना दुर्लभ है, बोधि रस्त्रका प्राप्त करना तो दुर्लभ है हो। जीवका संसार अनन्त होता है ||६१ ।। यहाँ 'अनन्त' पदका अर्थ करते हुए टीकामें लिखा है अतो अनन्तः अर्धपुद्गलप्रमाणः कृतोऽस्यानन्तत्वम्, केवलज्ञानविषयत्वात् । अनन्तका अर्थ है अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण । शंका- यह काम अनन्त कैसे है ? समाधान — केवलज्ञानका विषय होनेसे इस कालको अनन्त कहा है । यह आगमप्रमाण है । इससे विदित होता है कि जहाँ भी आगम में 'सस्यवत्व गुणके कारण अनन्त संसारका छेद किया।' यह बचन आया है बड़ीं उसका यही आशय है कि 'सम्यक् गुण प्राप्त होने पर ऐसे जीवका संसार में रहने का जो उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण शेष रहा था लगता है, किन्तु ऐसा जीव नियमसे पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है, अतः वह पुन: अनन्तसंसारी कहलाने वह घटने तो अवश्य लगता है । यद्यपि ऐसा जीव अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक ही मिष्यादृष्टि बना रहता है, पर वह कहलाता है अनन्तसंसारी ही इससे यह खात्पर्य फलित हुआ कि मिध्याष्ट्रिकी अनन्त संसारी संज्ञा है और सम्यग्दृष्टिको इसके विपरीत सान्त संसारी कहते हैं। षवलजी में आचार्य वीरसेनने जो 'सम्मत्तगुणेण अनंतसंसारो हिण्णी' मह वचन दिया है उसका भी यही माशय है । ९९

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476