Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 399
________________ शंका १६ और उसका समाधान व्यबहारनयसे अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र जानो । उसे जिनदेवने व्रत, समिति और गुप्तिरूप कहा है ।।४।। इससे स्पष्ट है कि ब्यबहार मोक्षमार्गसे निश्चय मोक्षमागं भिन्न है। फिर भी भगवान्ने निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धिका बाह्य हेतु जानकर इसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है । और जो जिसकी सिद्धिका हेतु हो उसे उस नामसे पुकारना असत्य नहीं कहलाता। इससे स्पष्ट है कि सर्वज्ञने न्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहार मोक्षमार्गका उपदेश देकर जीवोंका अकल्याण न कर निश्चय मोक्षमार्ग हो यथार्थ मोक्षमार्ग है यह स्पष्ट किया है। यही कारण है कि आचार्य अमृतवन्द्रने प्रवचनसार माया १९९ की टोकामे निश्चय मोक्षमार्गको हो मोक्षका एकसया मार्ग बतलाते हुए लिखा है यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकराः श्रचरमशरीरा मुमुक्षवश्चासुनैव यथोदितेन शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मागमधिगम्य सिद्धा वमयुः, न पुनरन्यथापि । ततोऽवधायते केवलमयमेक एवं मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति । सभी सामान्य चरमशरीरो, तोर्थकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिलक्षण विधिसे प्रवृत्त हुए मोक्षमार्गको प्राप्त करके सिद्ध हुए, परन्तु ऐसा नहीं है कि अन्य मार्गस भी सिब हुए हो। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं। ६. बन्ध पार मोक्षका नयष्टिसे स्पष्टीकरण जैनदर्शन ध्रुवताके समान उत्पाद-व्ययको भी स्वीकार करता है । द्रव्यदृष्टिसे प्रत्येक द्रव्य ध्रु बस्वभाव सिद्ध होता है और पर्यायष्टिसे उत्पाद-ध्ययरूप भी सिद्ध होता है । इस दृष्टिसे निश्चयनयका कथन जितना यथार्थ है, सद्भत व्यवहारमय (निश्चय पर्यायाथिकनम का कथन भी उतना ही यथार्थ है। अन्य दर्शन इस प्रकार नयभेदसे वस्तुको सिद्धि नहीं करते, इसलिए उनका कथन एकान्तरूप होनेसे मिथ्या है इसमें सन्देह नहीं। अब देखना यह है कि जीयकी जो बन्ध और मोक्ष पर्याय कही है वह क्या है ? यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि न तो एक द्रव्यको पर्याय दुसरे द्रव्य में होती है और न ही दो दव्य मिलकर उनकी एक पर्याय होती है। इसलिए जब हम जोवको अपेशा विचार करते है तो यही सिद्ध होता है कि बन्ध और मोक्ष ये दोनों जोवकी हो पर्याय है। इस अपेक्षासे ये दोनों पर्याय जीवमें सद्भुत है-यथार्थ है। भावसंसार ओर भावमोक्ष इन्हीं का दूसरा नाम है। यह सद्भुत व्यवहारनयका वक्तव्य है | असत व्यवहारनयका बक्तव्य इस से भिन्न है। यह न य कार्मण वर्गणाओंके ज्ञानावरणादिरूपसे परिणमनको बन्ध कहता है और उन ज्ञानाबरणादि कमौके कर्मपर्यायको छोड़कर अकर्मरूपसे पारणमन को मोक्ष कहता है। यद्यपि ये दोनों ( कार्मणवर्गणाओंकी कर्मपर्यायहप बचपर्याय और कर्मोंको अकर्मरूप मोक्षपर्याय) जीवकी नहीं है. इन्हें जीवन उत्पन्न भी नहीं किया है। फिर भो असद्भुत व्यवहारनयसे ये जीवको कही जातो है और जीवको ही इनका कर्ता भी कहा जाता है। ये पुदगलपरिणाम आत्माका कार्य नहीं है इस तथ्यो स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें लिखते हैं गेहदि व ण मुंथदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जावो पुग्गलमज अषण वि सम्बकालेसु ।।१८५||

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