Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 397
________________ शंका १६ और उसका समाधान ជុំប यह जोव दिन-रात मनमें विचित्र पापरूप अनेक प्रकारके बिकल्प करता रहता है। किन्तु जो साक्षात् मोक्षप्राप्तिका उपाय है ऐसे अपने प्रात्मस्वभावका पढ़ एक क्षण भी विचार नहीं करता।॥५०॥ नियमसारमें लिखा है जीवादि यहित्तच्च यमुपादेयमपणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुम्भवगुण-पज्याहिं वदिरित्तो ।।१।। जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है। मात्र कोपाधिको निमित्त कर उत्पन्न हुई गुणपर्यायांसे भिन्न अपना आत्मा उपादेय है ।।३८॥ ऐसी अवस्थामें अपर पक्ष ही बतलाव कि प्रवृतमें सन्मतितकी उक्त गाथाका क्या प्रयोजन रह जाता है ? बह गाथा तो मात्र प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है इसे प्रसिद्ध करने में चरितार्थ है। किन्तु जो सामान्य-विशेषात्मक वस्तुको जानता है और मोक्षमार्गका पदानुसरण कर मुक्ति प्राप्त करना चाहता है उसे तो समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थों में प्रतिपादित अध्यात्ममार्गका ही पदानुसरण करना होगा । आगममें बाह्य परिणतिरूप चरणानुयोगकी सफलता भी इसी आधारपर स्वीकार की गई है। ६. अपर पशने व्यवहारमयसे जोत्रके जान, दर्शन और चारिश्रको जो सत्यार्थ-वास्तविक घोषित किये है उसे हम स्वीकार करते है। सद्भूतव्यबहारनपको अपेक्षा वे यथार्थ है, वास्तविक है इसने सन्देह नहीं। इसी प्रकार जीवादि द्रव्योंको शुद्धाशुद्ध समी पर्याय भी सत्यार्थ है, वास्तविक है। ये द्रव्याधिक नयको वस्तु है मातीशम है किगत विषम सामान्य है, पर्याय उसका विषय नहीं है। इसी प्रकार पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा सामान्य अवस्त है इसका भी यही आशय है कि उसन विषय विशेष है, सामान्य उसका विषय नहीं है। यहाँ एकको गौण और दुसरेको मुख्यकर यह कथम किया गया है, अन्यथा प्रत्येक नयको चरितार्थता नहीं बन सकती। यहाँ एक नयको विवक्षामें दूसरे नयके विषयको जो अवस्तु कहा गया है वह इस आशयसे नहीं कहा गया है कि ये खरविषण या आकाशकुसुमके समान वास्तवमें अवस्तु है, क्योंकि ऐमा स्वीकार करने पर सामान्य और विशेष दोनोंका अभाव होकर प्रत्येक द्रव्यका ही अभाव प्राप्त होता है। यहां इसना विशेष और ज्ञातव्य है कि पर्यायाधिकनयमें असद्भतव्यवहारमयका भी अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि यह नय भी पर्यायको ही विषय करता है। यदि इसमें सद्भत व्यवहारनपसे कोई भेद है तो इतना ही कि यह नय प्रयोजनादिवश दूसरे प्रत्यकी पर्यायको अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यकी कहता है। जब कि सद्भत थ्यवहारनय उसी प्रध्यकी पर्यायको भेदविवक्षार्म उसोको कहता है । आचार्य अमृतचन्दने समयसार कलश ४० में असदमत व्यवहारनवके विषयको एक उदाहरण उपस्थित कर समझाया है, अपर पक्ष उसपर दृष्टिपात कर ले यह हमारी प्रेरणा है। ७. अपर पक्षने ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध आदिको प्रत्यक्ष और वास्तविक लिखा है, किन्तु इस कथनसे उस पक्षका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया। ज्ञान प्रत्येक समयमें कालिक पर्यायों सहित सब द्रव्योंको जानता है और समस्त द्रव्य अपनी-अपनी कालिक पर्यायों सहित ज्ञानके विषय होते हैं यह समझना हो शेय-जायकसम्बन्ध कहलाता है, अन्य कुछ नहीं। इसी प्रकार अपर पक्षने अन्य जितने सम्बन्धोंका उल्लेख किया है उनके विषयमें भी व्याख्यान कर लेना चाहिए। यहाँ शान पदसे मुख्यतासे केवलज्ञानको ग्रहणकर कथन किया है। वास्तव में देखा जाय तो घटको जाननेवाला ज्ञान बानरूप हो प्रतिभासित

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