Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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dutodan
Dua
शंका १६ और उसका समाधान
७७३ समयमें अजीव देहावि, कर्म और कर्मके फलमें उपादेय बुद्धि से उपयुक्त होता है अर्थात् तन्मय होकर परिणमता है तो ऐसा होनेपर बन्ध है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में लिखा है
भावेण जेण जीघो पेच्छदि जाणादि आगदं बिसये ।
रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्मति उवऐसी ।।१७६।। जिनदेवका ऐसा उपदेश है कि यह जीव प्राप्त विषयको जिस राग-द्वेष-मोहमासे जानता देखता है उस भावसे उपरजित होकर कर्मबन्ध करता है ।।१७६।।
ये आगमप्रमाण है। इनसे विदित होता है कि कम ( राग-द्वेष और उनके फलमें यदि यह जीब उपयुक्त होता है तो हो ज्ञानावरणादि कर्म प्रजानादि जीव परिणाम के होने में हेतु संज्ञाको प्राप्त होते है, अन्यथा नहीं । इसलिए यहो सिद्ध होता है कि अपनी परतन्त्रताका मूल कारण यह जीव स्वयं है, ज्ञानावरणादि कर्म नहीं। ज्ञानावरणादि कर्मको आचायने परतन्त्रताका हेतु इसलिए कहा कि उनमें उपयुक्त होकर जीव अपने में परतन्त्रताको स्वयं उत्पन्न करता है। वे स्वयं जीवको परतन्त्र नहीं बनाते। जीवके परिणामको निमित्तकर कमवर्गणारूप पुद्गल कर्म गरिणामको प्राप्त होते हैं और उत्तर कालमें जोबके उनमें उपयुक्त होते समय वे जीवके राग-द्वेषरूप पारतन्त्र्य के होने में व्यवहार हेतु होते हैं । इससे भो सष्ट है कि यह जीव वास्तवमें स्वयं अपने अपराघवश परतन्य बनता है । चोरको कोतवाल ने परतन्त्र बनाया यह तो व्यवहार है। वास्तव में वह स्वयं अपने अपरामके कारण परतन्य बनता है यह यथार्थ है। तत्त्वार्थवातिक ५-२४ के वचन का दूसरा अभिप्राय नहीं। यहां आया हा 'मुलकारणं' पद निमितकारण अर्थका मुचक है । यथा-संजोयमू-संजोयनिमितम् । मूलाचार प्र० मा० २.४६ टोका।
__ पं० फूलचन्द्रने पंचाध्यायी पृ० १७३, पृ. ३३८ में जो कयन किया है वह व्यवहार हेतुको मुख्यतासे किया है। इसलिए पूर्वानरका विरोष उपस्थित नहीं होता । यदि पं० फूलचन्द्र व्यवहार हेतुको निश्चम हेतु मानने लगे तो ही पीपरका विरोष आता है, अन्य या नहीं। तभी तो पं० फूलचन्द्रने उसो पंचाध्यायो J०१७३ में यह भी लिखा है-'किन्तु यह परतन्त्रता जीवकी निज उपार्जित वस्तु है। जीवमें स्वयं एपी योग्यता है जिससे वह सदासे परतन्त्र है।' और इसी प्रकार उसो पंचाध्यायीके ९० ३३८ में भी यह लिखा है-'यह कमी जो थोड़ी बहुत अरिहंत अवस्थामें रहनी है वह अनादिकाल से चली आ रही है। इसका कारण कर्म माना जाता है अवश्य, पर यह मूलतः जोवको अपनी परिणतिका ही परिणाम है। इसे ही संसारदशा कहते हैं।
यद्यपि पं० फूलचन्द्र के उक्त कथनसे तो पूर्वापर विरोध नहीं पाता । परन्तु अपर पक्ष जो व्यवहार हेतु को ययाथं हेतु मनवाने का प्रयत्न कर रहा है उससे अवश्य ही आगमका विरोध होता है । आगम जब यह स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका त्रिकालमें यथार्थ की नहीं हो सकता । ऐसो अवस्थामें अन्य द्रव्य के कार्य में अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायको व्यवहार (उपचार) हेतु मान लेना ही आगम संगत है। यदि आगममें और आगमनुसारी कथनमें पूर्वापरका विरोध परिहार हो सकता है तो इसी स्वीकृतिसे हो सकता है. अन्यथा नहीं।
अपर पक्षने अपना मन्तव्य लिखनेके बाद एक उद्धरण आप्तपरीक्षा पृ० २४६ का भी उपस्थित किया है। उसमें परतन्त्रताके निमित्त (बाह्य हेतु) रूपसे कमको स्वीकार किया गया है। यहां ज्ञातव्य यह