Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा करते हैं । वे भाषा-भजन उपेक्षणीय नहीं । उनके प्रति किसी भी प्रकारसे लधुता प्रगट करना अनर्थको आमंत्रण देना है।
हमने पंचास्तिकाम गाथा १२३ का 'एवमनया दिशा इत्यादि टोका वचन जिस प्रयोजनसे पिछले उत्तरमें उपचत किया है उसका निर्देश वहः कर दिया है। अगर पक्षको उसको ध्यारुपा करके यह बतलाना था कि जिस प्रयोजनसे हमने उसे उद्धृत किया है वह प्रयोजन इससे सिद्ध नहीं होला । किन्तु यह सब कुछ न लिखकर मात्र यह लिखना कि 'वरना इस वाक्यको लिखनेको आवश्यकता हो न थी। कोई मायने नहीं रखता।
पं० फूलचन्द्रने धवल पृ० १३ पृ. ३६ पर विशेषार्थ में धवलशास्त्रको अध्यात्मशास्त्र स्वीकार किया है, वह पबल शास्यके आधारपर हो स्वीकार किया है। वहाँ उसे अध्यात्मशास्त्र जिस कारण कहा गया है इसका निर्देश भी कर दिया है । हम चाहते हैं कि अपर पक्ष पंचास्तिकाय गा० १२३ के टोका वचन और धवला पु०१३ पृ० १३६ के उक्त वचन इन दोनों को प्रमाण माने। हमें दोनों की प्रामाणिकतामें अणुमात्र भो सन्देह नहीं है। जो कथन जिस दृष्टिकोणसे किया गया है वह वैसा ही है. अन्यथा नहीं है।
वाचायं अमुतचन्द्रने प्रवसनसार गाथा १३ को टीकामें जो यह बचन लिखा है-'इयं हि सर्वपदानां' इत्यादि। उसे समझकर अपर पान जा एकान्त नियतिवादका निषेध किया है उसका हम स्वागत करते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि जिस प्रकार त्रिकालो ध्रुवस्वभाव सदाकाल एकरूप नियत रहता है उस प्रकार पर्याय क्रमनियमित होकर भी अर्थात् क्रमसे अपने-अपने नियत कालमें उत्पन्न होकर भी अनियत अर्थात् वही वही न होकर अन्य अन्य होती है। ऐसा हो वस्तुका स्वभाव है, उसमें चारा किसका।
__इस प्रकार द्वादशांग वाणीका अनुसरण करनेवाला प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और वर्तमान कालमें बोलो जानेवालो गुजरातो, हिन्दी, मराठी, कनडो, तमिल आदि भाषा में जितना भी जिनागम लिखा गया है वह सब प्रमाण है। वह सब जिनागम द्वादशांग हो है ऐसी जो श्रद्धा करता है वह सम्यग्दृष्टि है। हमें विश्वास है कि अपर पक्ष गृहस्थों द्वारा लिखित माषा-भजनोंको उक्त पद्धतिसे प्रमागकोटि में स्वोकार करेगा। वोतराग वाणीका नाम जिनवाणी है। अतएव जो वचन इसका पदानुसरण करते हैं वे भी जिनवाण के समान पूज्य हैं ऐसा यहाँ निर्णय करना चाहिए। वे गृहस्थों द्वारा लिखे गये यह गौण है । उनमें जिन वाणीका गुण होना मुख्य हैं, क्योंकि पूज्यता उसीसे आती है।
१०. व्यबहार प्रत, तप आदि मोक्षके साक्षात् साधक नहीं अपर पक्षने प्रतिशंका २ में लिखा था-'अब हम व्यवहारनयके विषयभूत व्यवहार क्रियाओंपर थोड़ा प्रकाश डालते हैं। दिगम्बर जैनागममें व्यवहार धर्मक आधारपर हो निश्चयस्वरूप शुद्वात्माको प्राप्ति अथवा मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है।' आदि,
हमने इसे और इसके आगेके कथनको ध्यानमें रखकर समयसार गाथा १५३ के आधारसे स्पष्ट किया था कि 'त, नियमरूप व्यवहार तो मिथ्याष्टिक भी होता है, परन्तु इसे पालता हुआ भो बह परमार्थ बाह्म बना रहता है, इसलिए निर्वाणको प्राप्त नहीं होता।' ऐसा हमारा लिखनेका आशय यह था