Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 407
________________ शंका १६ और उसका समाधान ॐॐॐ सिद्ध किया जा सकता है कि प्रस्तुत वर्चा में अगर पक्षने कहाँ तक वीतरागताका निर्वाह किया है। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि कोई भी नय कल्पनारोपित अप्रामाणिक या असत्य नहीं होता। व्यवहारनके लिये इन अब्दों का प्रयोग अपर पक्ष ही कर रहा है, इसका हमें आश्चर्य ही नहीं खेद भी है। निश्चयनय जैसा वस्तुका स्वरूप है उसे उसी रूप में निरूपित करता है, सद्भूत व्यवहारनय सद्भूत अर्थ में ही व्यवहारकी प्रसिद्धि करता है और असद्भूत व्यवहारमय उपचरित अर्थ की ही प्रसिद्धि करता है। सभी नय अपने-अपने विषयका हो निरूपण करते हैं, इसलिये वे यथार्थ हैं। कल्पनारोपित नहीं है। यह अपर पक्ष हो बतलावे कि क्या कोई ऐसा व्यवहारमय है जो गधे सींगकी या आकाशकुसुमको कहीं सिद्धि करता है जिससे कि उसे कल्पनारोपित, अप्रामाणिक या असत्य कहा जाय । अपर पक्ष ने हमारे किस कथन के आधारपर व्यवहार के लिये इन शब्दों का प्रयोग कर हम पर यह आरोप किया है कि हम व्यवहारनयको कल्पनारोपित आदि कहते हैं यह हम नहीं समझ सके । यदि प्रयोजनवश मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहा जाता है तो वह कल्पनारोपित कैसे कहलाया इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। फिर भी निश्चयनय मिट्टी के घड़े को मिट्टी का ही कहेगा | स्वरूपका ज्ञापक होनेसे, घड़ा बीका है इसका तो वह निषेध ही करेगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन करे । यथार्थ है ' हम और यही कारण हमने यह लिखकर अपर पक्ष का कहना है कि 'जो प्ररूपणा जिस नयसे की गई है उस नयसे वह अपर पक्षको विश्वास दिलाते है कि हमने अपने इसे मान्य रखा है। है कि अपर पक्षने जहाँ व्यवहारनयकी कथलीको उद्धृत किया है वहाँ अनेक स्थलोंपर उत्तर दिया है कि यह व्यवहारनयका कथन या वक्तव्य है । अपर पक्षका हम पर यह भी आरोप है कि हमने 'सर्वश्री अकलंकदेव या विद्यानन्द द्वारा रचित शास्त्रों के प्रमाणोंकी अपेक्षा गृहस्थोंके द्वारा रचित भाषा भजनों को अधिक प्रामाणिक माना है और उन भजनोंका प्रमाण देकर परम पूज्य महान् आचार्योंके आर्ष ग्रन्थोंका निराकरण ( खण्डन ) किया । किन्तु यह विपरीत अर्थ अपर पक्षने कहाँसे फलित कर लिया ? क्या किसी आचार्यकी प्रयोजनवश की गई व्यवहार प्ररूपणा मी रूपमें सूचित करना उसका खण्डन है ? आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाया ९८ में 'आत्मा घटपट रथको करता है' इमे व्यवहार कथन कहा है । यदि अन्यत्र ऐसी कथनी उपलब्ध होती है और हम उसे व्यवहारनयको कथनो प्रसिद्ध करते तो क्या इसे उस कथनोका खण्डन माना जाय ? आचार्य 1 महान् त्राश्चर्य !! अपर पक्षको समझना चाहिए कि खण्डनका अर्थ होता है किसी कथनको विविध उपायका अवलम्बन लेकर अप्रमाणित घोषित करना। किसी कथनको यह किस नयका कथन है यह बतलाना खण्डन नहीं कहलाता। हमें तो आचार्योंके वचनोंके प्रति श्रद्धा हैं ही, गृहस्थों द्वारा रचित भाषा भजनों के प्रति भी श्रद्धा है। जो भगवाणी है वह श्रद्धास्पद है ऐसा हमारा निर्णय है। अपर पक्ष गृहस्थों द्वारा रचित भाषा भजनांचे प्रति होनताका भाव भले ही रखे, परन्तु इससे हमारी श्रद्धापर आँच आनेवाली नहीं है । यह हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हजारों लाखों नर-नारी उन्हीं भाषा-भजनोंका आलम्बन लेकर वीतरागमार्गका अनुसरण ९८

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