Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 402
________________ जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा . आगे अपर पक्षने लिखा है कि 'यदि मात्र अज्ञानभावको हो परतन्त्र करनेवाला मान लिया जावे"।' इससे मालूम पड़ता है कि उस पक्षका एक मत यह भी है कि जीवका अज्ञान भाव भी परतन्त्रता सामान है। यद् अपर पक्षका यवतव्य है। इसमें मालूम होता है कि अपर पक्ष एकान्तसे मात्र पुद्गल कर्मको जोयको परतन्त्रताका हेतु मानता है, किन्तु उस पक्षका यह कथन स्वयं आचार्य विद्यानन्दिके अभिप्रायके विरुद्ध है। चे अष्टसहली प०५१ में लिखते है तद्धेनुः पुनरावरणं कम जीवस्त्र पूर्वस्वपरिणामश्च । परन्तु उस अज्ञानादि दोषका हेतु आवरण कर्म है और अनन्सरपूर्व जीवका अपना परिणाम है । उमये यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य विद्यानन्दिने केवल ज्ञानावर णादि कमोंको ही परतन्त्रताका हेतु नहीं स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने राग, द्वेष और मोहको भो पर तन्त्रताका हेतु स्वीकार किया है। ये रागादि भात्र स्वयं पारतन्ध्यस्वरूप हैं और परनन्त्रताके हेतु भी हैं। तथा ज्ञानावरणादि कर्म व्यवहारसे केवल जीवकी परतन्त्रताके हेतु तो हैं पर जीवके पारतन्त्र्यस्वरूप नहीं ग्रह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार जीवको परतन्त्रताके दो हेतु प्राप्त हुए-याए और आभ्यन्तर। अब इनमें मुख्य हेतु कौन है इसका विचार करना है 1 हरिवंशपुराण सर्ग ७ में लिखा है जायते भिनजातीयो हेतुर्यत्रापि कार्यकृत् । तत्रासो सहकारी स्यात् मुख्योपादानकारण: ।।१४।। जहाँ भी भिन्नजातीय हेतु कार्यकृत होता है वहाँ वह सहकारी है और मुख्य उपादान कारण है ।।१४।। इस प्रकार प्रत्येक कार्यका मुख्य कारण उपादान है. भिन्नजातीय पदार्थ नहीं इसका निर्णय होनेपर अब इस बातका विचार करना है कि बाह्य पदार्थको सहकारी क्यों कहा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए समयसार गाथा १६ के बाद आचार्य जयसेनकृत टीकाम लिखा है अथ शुद्धजीवे अदा रागादिरहितपरिणामस्तदा मोक्षो भवति । अजीवे देहादी यदा रागादिपरिणामस्तदा बन्धो भवति । शुद्ध जोवकै विषयमें जब रागादि रहित परिणाम होता है तब मोक्ष होता है तथा अजीव देहादिमें जब रागादि परिणाम होता है तब बन्ध होता है। इस आशयको पुष्टिमें वहाँ एक गाथा दो है जीधे व अजीवे हा संपदि समयम्हि जस्थ उबजुत्तो। तत्व बम्ध मोपली हादि समासेण णिछिटो ।। -स. सा. गा. २० जयसेनकृत रीका संक्षेपमे बन्ध और मोनका निदान यह है कि यदि यह जीव वर्तमान समयम जीवमें उपयुक्त होता है अर्थात् उपादेय बुद्धिसे तन्मय होकर परिणमता है तो ऐसा होने पर मोक्ष है और परि यह जीव वर्तमान

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